Wednesday, July 11, 2018

जठराग्नि क्या है ?और देह में अन्य रस एवं अग्नियो की व्याख्या |

देहाग्नि की महत्ता

मनुष्य के शरीर की आयु, वर्ण, बल, स्वस्थता, उत्साह, शरीर की वृद्धि, कान्ति, ओज, तेज, अग्नियाँ और प्राण ये सभी देह की अग्नि (पाचक अग्नि) के प्रबल होने पर ही स्थिर रहते हैं ।। यदि जठराग्नि शांत हो जाये (नष्ट हो जाय) तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है और जठराग्नि में विकृति आ जाय तो मनुष्य रोगी हो जाता है ।। इसलिये अग्नि को आयु, वर्ण, बल आदि का मूल कहा गया है ।।

अग्नि प्रकार :-  अग्नि के 13 प्रकार हैं

     १. पाचकाग्नि या जठाराग्नि
     २. सात धातवाग्नि
     ३. पाँच भूताग्नि


अग्नि के कार्य :-

प्रतिक्षण, शारीरिक धातुओं का क्षय होता रहता है ।। उस क्षय की पूर्ति के लिये आहार की आवश्यकता होती है ।। जब आहार द्रव्य पाचकाग्नि द्वारा पचित होता है, तब रस धातु का निर्माण होता है और इसके बाद धातुओं की सात धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होकर पोषण रूप बनता है, जिनके द्वारा शरीर का पोषण आयु, बल, वर्ण, कान्ति आदि की स्थिति बनी रहती है ।। किन्तु जब पाचकाग्नि में ही विकृति आ जाती है तो विकृत रस के निर्माण होने पर सभी धातुएँ विकृत हो जाती है ।।

जठाराग्नि का महत्त्व

जो अन्न शरीर धातु, ओज, बल और वर्ण आदि का पोषक है उसमें अग्नि (जठाराग्नि) ही प्रधान कारण है क्योंकि अपच आहार से इस आदि धातुओं की उत्पत्ति उचित रूप से नहीं हो पाती ।।

जठाराग्नि के कार्य :-


खाये हुये आहार को आदान कर्म (ग्रहण करने वाली) प्राण वायु कोष्ठ (आमाशय) में ले जाती है ।। आमाशय में जब अन्न प्रविष्ट हो जाता है तो आमाशयस्थित द्रव (क्लेदल कफ़) द्वारा उसका संघात (कड़ापन) छिन्न- भिन्न हो जाता है ।। तथा क्लेदल कफ़ में वर्तमान स्नेहांश से वह आहार कोमल हो जाता है ।। फिर समान वायु से प्रेरित उदर की अग्नि (पाचकाग्नि) प्रबल होकर उचित समय पर सम मात्रा में खाये गये उस अन्न को आयु आदि की वृद्धि के लिये उचित रूप से पकाती है ।। जिस प्रकार एक पात्र में चूल्हे के ऊपर रखा हुआ जल और चावल को पकाकर बाह्याग्नि भात को पकाती है ।। उसी प्रकार आमाशय में रहने वाले आहार को आमाशय के अन्धःप्रदेश में रहने वाली पाचकाग्नि उचित रूप में पकाकर रस एवं मल को उत्पन्न करती है ।।



भूताग्नि का कार्य

भोजन द्रव्य पंचभौतिक है ।। फिर भी जिसमें पार्थिव गुण अधिक होते है उन्हें पाथव कहते हैं ।। इस प्रकार पाथव आहार पाथवोष्मा, आप्य आहार की आप्योष्मा, आग्नेय आहार की आग्नेयोष्मा, वायवीय आहार की वायोष्मा और नाभस आहार की नाभोष्मा, शरीर के पाँच प्रकार की ऊष्माओं की अर्थात् पंचभौतिक देह की पाथवोष्मा को पंचभौतिक आहार की पंचभौतिक आहार की आपोष्मा, पंचभौतिक शरीर की आप्योष्मा को, पंचभौतिक आहार की आग्नेयोष्मा पंचभौतिक देह की आग्नेयोष्मा को, पंचभौतिक आहार की वायव्योष्मा पंचभौतिक देह की वायव्योष्मा को, तथा पंचभौतिक आहार की नाभयोष्मा पंचभौतिक देह की नाभयोष्मा को पुष्ट करती है ।। अतः इस पंचभौतिक देह द्रव्य का पोषण पंचभौतिक आहार (भोजन) द्रव्य से होता है । पोषण का क्रम यह है कि वह पंचभौतिक आहार द्रव्य में जो पाथव आहार है, वह देह के पाथव का और जो आप्य द्रव्य है वह शरीर के आप्य अंश का पोषण या वृद्धि 'सर्वदा सवर्ण भावानां सामान्यं वृद्धि कारणम्' के नियम से करता है । इस प्रकार पाथवादि आहार द्रव्य का पाचन या पोषण होने के बाद वह आहार द्रव्य शरीर के अनुकूल हो जाता है और आहार रस की उत्पत्ति होती रहती है ।।

इस रस से फिर क्रमशः रस इत्यादि धातुओं की अपनी- अपनी अग्नियों द्वारा पाचन होता है और इन धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होने के बाद वह रस उस धातु के सात्म्य हो जाता है और उस धातु में मिश्रित हो जाता है या शोषित कर लिया जाता है ।। इस प्रकार क्रमशः सभी धातुओं की या एक ही बार पाचन होने पर उस धातुओं की वृद्धि होती जाती है ।।


पाचकाग्नि

महास्त्रोतस् में क्रियाशील दीपन- पाचन स्राव, जीवन- रसायन - धर्म या आग्नेय द्रव्य तथा इनके साथ- साथ सदा विद्यमान ऊष्मा इन सबको समवेत रूप में 'पाचकाग्नि' कहा गया है ।।

धान्वन्तर सम्प्रदाय ने इसके द्वारा होने वाले अग्निकर्म (जीव रसायन क्रिया) का विशेष महत्त्व प्रतिपादित करते हुये इसे पाचनकर्म करने वाली अग्नि (पाचकाग्नि) कहा है ।। आग्नेय सम्प्रदाय ने इसी के भौतिक- आग्नेय द्रव्यमय रूप को यथायोग्य निर्धारित करने के लिए इसे 'पचाने वाला प्राणिज द्रव्य विशेष' पाचक- पित्त कहकर सम्बोधित किया है ।। वास्तविकता यह है कि दोनों एक हैं और पाचक पित्त ही पाचकाग्नि है ।।


रसाग्नि

रस धातु में स्थित 'पित्तोष्मा' को रसाग्नि कहा गया है ।। रसाग्नि से वे 'पाचनांश और ताप' अभिप्रेत है जो देहपोषक रस में रहते हुये कुछ निश्चित रासायनिक क्रियायें सम्पन्न करते है । ये पाचनांश और इनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप, इन दोनों का समवेत रूप रसाग्नि है ।। जब अन्नरस में नाना भौतिक आहार द्रव्यों के साथ- साथ गयी हुई भूताग्नियाँ, पाचकाग्नि के प्रभाव से प्रदीप्त होकर, उस अन्नरस को 'देहधातुओं का सजातीय' बना देती हैं, तब वह अन्नरस 'देहपोषक रस' कहलाता है ।।

रसाग्नि कर्म और इसके परिणाम :-

रसाग्नि या 'रसगत पाचनांश और ऊष्मा' का क्रियाक्षेत्र देहपोषक रस या रस धातु है ।। रसाग्नि शब्द से अभिहित पूर्वोक्त पाचन द्रव्य रस धातु पर विविध अग्निकर्म या रासायनिक क्रियाए करते हैं ।। आयुर्वेद के क्रिया शरीर विशारदों का मत रहा है कि इन रस धातुगत रसायन- क्रियाओं के या रसाग्नि कर्म के परिणाम स्वरूप देहपोषक रस के प्रसाद धातु और किट्ट ये तीन रूपान्तर हो जाते हैं ।। प्रसाद रूप वह, जो कालान्तर में रस उत्कृष्टतर धातु रक्त या रुधिर का रूप ग्रहण कर लेता है, धातु रूप वह जो स्वरूप में स्थायी रस धातु के रूप में परिणत होता है और किट्ट रूप वह जिसे हम स्थूल शेष्मा कहते हैं ।। रक्ताग्नि आहार द्रव्यों से उत्पन्न 'अन्नरस' जब देह जातीय बनकर रसाग्नि पाक के उपरान्त रस धातु बन जाता है और रक्त में मिश्रित होकर तद्रूप हो लेता है तब इसका रक्ताग्नि से पाक होता है ।।
 

रक्ताग्नि

रक्तगत पित्तोष्मा है अर्थात् रक्त में विद्यमान भिन्न- भिन्न प्रकार के पाचनांश और उनकी क्रियाओं के लिए आपेक्षित ताप का समवेत रूप रक्ताग्नि कहा जा सकता है ।।

रक्ताग्नि के कार्य-

रक्ताग्नि द्वारा रक्त का पाक कुछ काल तक होता रहता है, और इसके प्रसाद, धातु और किट्ट तीन प्रकार के अंशों का प्रादुर्भाव होता है ।। प्रसाद- रूप अंश से उत्तर धातु- मास के उपादान बनते हैं ।। धातु रूप भाग वह लालरक्त, श्वेत रक्त और चक्रिकाओं के रूप में यकृत, प्लीहा, मज्जा के भीतर प्रस्तुत होता है ।। किट्ट भाग से पित्त की उत्पत्ति होती है जो लोहित कणों के टूटने और रक्त रंजक के विघटित होने पर पतले रंजक द्रव्य में तदनन्तर यकृत पित्त स्राव के रूप में परिणत होकर अन्त्र के भीतर परिस्रुत होता रहता है ।।


मांसाग्नि- रसाग्नि और रक्ताग्नि के समान मांसाग्नि भी मांसगत पित्तोष्मा है,  अर्थात् यह विशिष्ट प्रकार के पाचनांशों और उनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप का समवेत रूप है ।।


साम निराम

सामशब्द का अर्थ होता है 'आम सहित' और निराम शब्द का अर्थ होता है 'आम रहित' ।।

तीन दोष अथवा कोई एक दोष जब आम से युक्त होता है तो उसे सामदोष कहते हैं ।।

आमयुक्त दोष-  विकृतावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और वे व्याधि को उत्पन्न करते हैं, वही दोष जब आम से रहित होता है तो निराम कहलाता है ।। निराम दोष समानतया प्राकृत या अविकृत दोषों को कहा जाता है ।। इस प्रकार दोषों की साम अवस्था विकारोत्पादक और निराम अवस्था विकार शामक होती है ।।
जठाराग्नि अथवा धात्वाग्नि की दुर्बलता के कारण अन्न तथा प्रथम धातु अर्थात्- रसधातु या आहार रस का समुचित रूप से पाक न होने के कारण अपक्व रस उत्पन्न होता है, यह अपक्व रस ही आम कहलाता है ।।

आम दो प्रकार के होते हैं

     १-   अपक्व अन्न रस
     २-   धात्वाग्नियों की दुर्बलता से अपक्व रस धातु ।।

प्रथम जठाराग्नि की दुर्बलता से अवस्था में आम की उत्पत्ति होती है ।। यह आमोत्पत्ति की अवस्था आमाशय गत होती है ।। दूसरी अवस्था धात्वाग्नि की दुर्बलता के कारण रस रक्तादि धातुओं के परिपाक में होती है ।। यह आमोत्पत्ति धातुगत होती है ।। इस आम को आमविष भी कहते हैं ।। यही आम दोषों के साथ संयुक्त होकर विकारों को उत्पन्न करता है ।। यह सभी दोषों का प्रकोपक होता है ।। अपक्व अन्नरस में सड़न होने से यह शुक्तरूप अर्थात सिरका की तरह होकर विषतुल्य हो जाती है-

      'जठराग्नि दौर्बल्यात् विपक्वस्तु यो रसः ।'
स आम संज्ञको देहे सर्वदोष प्रकोपणः
                                     अपच्यमानं शुक्तप्वं यात्यन्नं विषरूपताम् ॥  -(च०चि०१५ ।४४)

अग्नि की मंदता के कारण आद्य अपचित धातु जो दूषित अपक्व होकर आमाशय में रहता है वह रस आम कहलाता है-

'उष्मणोऽल्पबलत्वेन धातु माद्यमपचितम्
                                                  दुष्टमानाशयगतम् दुष्टमानाशयगतं रसमामं प्रचक्षते ।' - (अ०छ्र०सू०१३ ।२५)

सामलक्षणः-   अपक्व अन्नरस किं वा अपक्व प्रथम रस धातु से मिले हुए दोष- यथा वात, पित्त, कफ़ और दूष्य यथा रक्तादि धातु- साम कहे जाते हैं और इनसे उत्पन्न रोगों को 'सामरोग' कहा जाता है ।। जैसे

   सामज्वर, सामातिसार, आमेन तेन सम्प्रक्ता दोषाः दुष्यश्च दूषिता ।।
सामादुत्युपदिश्यन्ते येष रोगास्तदृदभषाः ।।- (अ०छ०सू०१३ ।। २७)

सामव्याधि- आलस्य, तंद्रा, अरुचि, मुखवैस्य, बेचैनी, शरीर में भारीपन, थकावट और अग्निमांध आदि साम रोग के लक्षण है ।

निरामव्याधि- शरीर में हल्कापन, इन्द्रियों की प्रसन्नता, आहार में रुचि और वायु का अनुलोमन होने पर रोग को निराम जानना चाहिये ।

अन्नरस जब तक आमाशय में रहता है तब तक उसका शरीर में ग्रहण होना सम्भव नहीं होता । वह विशेषकर उदर प्रदेश में ही विभिन्न विकृतियाँ अजीर्ण आदि उत्पन्न करता है । परन्तु इसके सड़ने से उत्पन्न विषद्रव्यों की आंत्रों द्वारा ग्रहण होता है । ग्रहीत होकर ये विष द्रव्य शरीर में पहुंचते हैं और अनेक विकारों को पैदा करते हैं ।

धात्वाग्नियों के दौबर्ल्य वश स्वयं धातुओं में भी रसधातु आमावस्था में रहता है जिससे उत्तरोत्तर धातुओं की पुष्टि नहीं होती जिसके कारण अपोषण जनित विकारों का जन्म होता है ।

सामदोष लक्षण-   स्वेद मूत्रादि स्रोतों का अवरोध, बल की हानि, शरीर में भारीपन, वायु का ठीक से न होना, आलस्य, अजीर्ण, थूक या दूषित कफ अधिक निकलना, मल का अवरोध, अरुचि, क्लम अर्थात् इन्द्रियों की अपने विषयों में अप्रवृति और श्रम मालूम होना, ये साम दोषों के लक्षण है-

'स्रोतोवरोध बलभ्रशं गौरवानिल मूढ़ता
            आलस्यपक्तिनिष्टीव मलसङ्गा रुचि क्लमाः
                 लिङ्ग मलानां समानाम् ।'- (अ०हृ०सू० १३ । २३)

निरामदोष लक्षण-   स्रोतों का प्राकृत रूप से कार्य करना, बल का ह्रास न होना, शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति, समाग्नि, विषबन्ध न होना, आहार में रूचि और थकावट की प्रतीति न होना, ये निरामदोष के लक्षण होते है -

'निरामाणं विपयर्यः'   - (अ०ह०)


सामवात के लक्षण-   विबन्ध-अग्नि मांद्य, तन्द्रा, आंतों में गुड़गुड़ाहट, अंगवेदना, अंगशोथ, कटि पाश्वार्दि में पीड़ा, उरुस्तम्भ, स्तैमित्य, आरोचक, आलस्यादि सामवायु के लक्षण होते हैं । वायु की वृद्धि होने पर समस्त शरीर में संचरण करता है तथा परिस्थिति अनुसार एकांग या सर्वांग में विकार उत्पन्न करता है ।

निराम वायु लक्षण-   निरामवायु विशद रुक्ष, विबन्ध रहित और अल्पवेदना वाला होता है तथा विपरीत गुणोपचार से शांत होता है ।

निरामो विशदोरुक्षो निविर्न्धोऽल्पवेदनः
                                   विपरीत गुणैःशान्ति स्निग्धैयार्ति विशेषतः । - (अ०छ०सू० १३ ।)

सामपित्त के लक्षण-   सामपित्त दुर्गन्ध युक्त हरित या इषत कृष्ण अम्ल स्थिर अर्थात् जल में न फैलने वाला अम्लोद्गार, कण्ठ और हृदय में दाह उत्पन्न करने वाला होता है ।

''दुगर्न्धं हरितंश्यावं पित्तमम्लं घनं गुरू
                         अम्लीकाकण्ठहृद्दाहकरं सामं विनिदिर्शेत् ।"  - (अ०छ०)

निरामपित्त के लक्षण-  किन्चित् ताम्रवणर् या पीतवर्ण, अतिउष्ण, तीक्ष्ण, तिक्तरस, अस्थिर, गन्धहीन तथा रुचि अग्नि एवं बल का वधर्क होता है ।

सामकफ के लक्षण-   अस्वच्छ ततुंओं से युक्त सान्द्र कण्ठ को लिप्त करने वाला दुगर्न्धयुक्त भूख और डकार को रोकने वाला होता है ।

निराम कफ लक्षण-   फेनवाला, पिण्डरूप अर्थात् जिसमें तंतु नहीं होते हल्का गन्धहीन एवं मुख को शुद्ध करने वाला होता है ।


रस (षट्रस)



वस्तुतः हम जो भी खाद्य पदार्थ एवं वस्तुएँ ग्रहण करते हैं, उनमें से जिस स्वाद का ज्ञान जिह्वा के द्वारा होता है उसे ही रस कहते हैं ।।

'रसानार्थो रसः' इस उक्ति के अनुसार शब्द, स्पर्श, रूप आदि अन्य इन्द्रियों के अर्थों के समान रस जिह्वा इन्द्रिय का अर्थ है, क्योंकि रस का निश्चय जिह्वा पर पड़ने से ही होता है ।। इसलिए इसकी रस संज्ञा होती है तथा- रसेन्द्रिय के विषय को रस कहते हैं ।।

रसनार्थो रसः - (च.सू.अ. १)
                  रसेरन्दि्र्यग्राह्यो योडर्थः स रसः  -  (शि.)
                      रसस्तु रसनाग्राह्यो मधुरादिरनेकधा- (का.)

अर्थात् जिस गुण का रसना के द्वारा ग्रहण होता है व रस कहलाता है ।। मधुर अम्ल आदि में पृथक वैशिष्ट्य होने पर भी सारतत्त्व सब में समान रूप से रहता है, अतः ये रस कहलाते हैं ।।

रस और उनका आश्रय- द्रव्य में रहने वाले मधुर, अम्ल, लवण ,कटु, तिक्त और कषाय ये छः रस हैं तथा इसमें जो रस जिस रस के पूर्व में रहता है, वह उससे बलवान होता है ।। अर्थात् रसों की पहचान जीभ के ग्रहण करने पर ही होती है, यथा स्वाद से जैसी प्रतीति होती है मधुर, अम्ल, लवण या मीठा खट्टा नमकीन आदि ।।

'रसा स्वादाम्ललवणतिक्तोष्ण कषायकाः'
                           षड् द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूर्व बलावहाः ।   - (अ.स.सू.अ.१)


रसों की संख्या- रस छः हैं- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ।।

रसास्वात् षट् मधुराम्ललवण कटु तिक्त कषाय । - (च.चि. १)


इन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में क्रमशः मीठा, खट्टा, नमकीन, कडुआ, तीता और कसैला कहते हैं ।। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-

     मधुर-  गुड़, चीनी, घृत, द्राक्षा आदि ।।
     अम्ल-  इमली, नीबू, चांगेरी ।।
     लवण- सैधंव समुद्र लवण आदि ।।
     कटु-   निम्ब, चिरायता, करेला आदि ।।
     तिक्त- मरीच, लंका (लाल मिर्च) पिप्पली ।।
     कषाय- हरीतकी, बबूल, घातकी ।।


रसों की संख्या के विषय में आचार्य कठोरता वादी हैं और उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता ।। इसलिए रस छः ही हैं, न कम न अधिक ।। यद्यपि रसों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं, परन्तु मान्य छः रस ही हैं ।।

रसों का पञ्चभौतिकत्व- द्रव्य के समान रस भी पंचभौतिक हैं ।। जल तो मुख्य रूप से और पृथ्वी जलवायु प्रवेश के कारण अप्रत्यक्ष रूप से रस का समयवी कारण है ।। इसके अतिरिक्त आकाश, वायु और अग्नि ये तीन महाभूत रस की सामान्य अभिव्यक्ति तथा वैशिष्ट्य में निमित्त कारण होते हैं ।। इस प्रकार पाँचों महाभूत रस के कारण तथा सम्बद्ध है ।। द्रव्य और रस दोनों पंचभौतिक होने के कारण द्रव्य अनेक रस होते हैं ।। वस्तुतः रस जलीय है और पहले अव्यक्त रहता है, वही एक आप्य रस काल के छः ऋतुओं में विभक्त होने के कारण पंचमहाभूतों के न्यूनाधिक गुणों से विषम मात्रा में विदग्ध होकर मधुर आदि भेद से अलग छः प्रकारों में परिणत हो जाता है ।। अतः रसों की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के द्वारा ही होती है ।।

                    तत्र भूजलयोबार् छुयान्मधुरो रसः ।।
                    भूतेजसोरम्लः जलतेज सोलवर्णः ।।
      वाय्वा काशयोस्तिक्तः ।।
   वायु तेजसोः कटुकः ।।
वायुव्योर् कषायः ।।

१. मधुर-   जल + पृथ्वी
२. अम्ल-   पृथ्वी +अग्नि (चरक, वृद्धवाग्भट और वाग्भट) जल अग्नि (सु.)
३. लवण-   जल +अग्नि (चरक, वाग्भट) पृथ्वी अग्नि (सुश्रुत) अग्नि जल (नागार्जुन)
४. कटु-   वायु +अग्नि
५. तिक्त-   वायु +आकाश
६. कषाय-   वायु+पृथ्वी

महाभूत की न्यूनाधिकता ऋतुओं के अनुसार होती है और उसके कारण विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न रसों की उत्पत्ति होती है ।।

"ऋतु महाभूताधिक्य रसोत्पत्ति"

     १. शिशिर -वायु आकाश -तिक्त
     २. वसन्त -वायु पृथिवी -कषाय
     ३. ग्रीष्म -वायु अग्नि -कटु
     ४. वर्षा -पृथिवी अग्नि -अम्ल
     ५. शरत -जल अग्नि -लवण
     ६. हेमन्त -पृथिवी जल -मधुर


रस के भेद-


मधुर रस लक्षण-

मधुर रस जिह्वा में डालने पर पैछित्य संयोग से मुँह मे लिपट जाता है, जिससे इन्द्रियों में प्रसन्नता होती है, गुण भी माधुर्य, स्नेह गौरव, सव्य और मार्दवं है, अतः मधुर रस कफवर्द्धक है, इसके सेवन से शरीर में सुख की प्रतीति होती है जो भ्रमर कीट मक्खी आदि को अत्यन्त प्रिय होता है ।। मूत्र के साथ शर्करा जाती है जो मधुमेह का एक कारण है ।।

कार्य-

शरीर के सभी धातुओं को बढ़ाता है तथा धातुओं के सारभूत ओज की वृद्धि करने के कारण यह बल्य जीवन तथा आयुष्य भी है ।। शरीर पोषक- पुष्टि कारक एवं जीवन प्रद है ।।


२. अम्ल रस लक्षण एवं कार्य-

जिससे जिह्वा में उद्वेग होता है, छाती और कण्ठ में जलन होती है, मुख से स्राव होता है, आँखों और भौहों में संकोच होता है, दाँतों एवं रोमावली में हर्ष होता है ।। अम्ल, रस, वायु नाशक तथा वायु को अमुलोमन करने वाला पेट में विदग्ध करने वाला, रक्त पित्त कारक, उष्णवीर्य, शीत स्पर्श, इन्द्रियों में चेतनता लाने वाला होता है ।।

३. लवण रस लक्षण-

जो मुख में जल पैदा करता है, कण्ठ और गालों पर लगने से जलन सी होती है और जो अन्न में रुचि उत्पन्न करता है, उसे लवण रस कहते हैं ।।

कर्म-

लवण रस जड़ता को दूर करने वाला, काठिन्य नाशक तथा सब रसों का विरोधी, अग्नि प्रदीप रुचि कारक, पाचक एवं शरीर में आर्द्रता लाने वाला, वातनाशक, कफ़ को ढीला करने वाला गुरु स्निग्ध तीक्ष्ण और उष्ण है ।। लवण रस नेत्रों के लिए अवश्य है, सैन्धव लवण अहितकारी नहीं ।।


४. तिक्त रस लक्षण एवं कर्म-

जो मुख को साफ करता है, कण्ठ को साफ करता है तथा जीभ को अन्य रसों को ग्रहण करने में असमर्थ बना देता है, उसे तिक्त रस कहते हैं ।।

तिक्त रस स्वयं अरोचिष्णु, अरुचि, विष कृमि, मूर्च्छा, उत्क्लेद, ज्वर, दाह, तृष्णा, कण्डू आदि को हरने वाला होता है ।। रुक्ष- शीत और लघु है, कफ़ का शोषण करने वाला दीपन एवं पाचन होता है ।।

५. कटुरस लक्षण एवं कर्म-

जो बहुत चरपरा होता है, जीभ के अग्र भाग में चरचराहट पैदा करता है ।। कण्ठ एवं कपोलों में दाह पैदा करता है ।। मुख, नाक, आँखों में जिसके कारण पानी बहने लगता है और जो शरीर में जलन पैदा करता है उसे कटु रस कहते हैं ।।

दीपेन पाचन है ।। उष्ण होने से प्रतिश्याय कास आदि में उपयोगी है ।। इन्द्रियों में चैतन्य लाने वाला, जमे हुए रक्त को भेदकर विलयन करने वाला होता है ।।

६. कषाय रस लक्षण एवं कर्म-

जीभ में जड़ता लाता है ।। कण्ठ को रोकता है, हृदय में पीड़ा करता है, वह कषाय रस है ।। स्तम्भन होने के कारण रक्तपित्त अतिसार आदि में ये द्रव पुरीष तथा रक्तादि को रोकने के लिए उपयोगी है ।। शीतवीर्य, तृप्तिदायक, व्रण का रोपण करने वाला तथा लेखन है ।।

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