अध्यात्म के अध्याय

Saturday, May 19, 2018

सप्त चक्र क्या हैं ?




हमारे सात चक्र है जिनका नाम --


7 . ----------------सहस्त्रार कमलदल चक्र 

6. --------------------------------आज्ञा चक्र 

5. ------------------------------विशुद्धि चक्र 

4. ------------------------------अनाहत चक्र 
           
3. ----------------------------------   मणिपुर 

2. ---------------------------------स्वाधिष्ठान 

1.  -----------------------------------मूलाधार 


NOTE  1  : आज इस पोस्ट में मैं सातो चक्रों के प्रकार, क्रिया और मंत्रो के बारे में बताऊंगा | कुण्डलिनी शक्ति उसके प्रयोगों और योगिनी शक्तियों के निवास स्थान के बारे में अगली पोस्ट्स में चर्चा की जाएगी | 

NOTE 2 : इस पोस्ट में जितनी भी लाभ और हानियां बताई गयी हैं वो भविष्य के लिए चेतावनी मात्र हैं |  परन्तु अभी आपके ध्यान लगाने से कोई सिद्धि या लाभ तुरंत नहीं मिलेगा | आप सभी से नम्र निवेदन है की किसी भी चक्र का बीज मंत्र ढूंढने की कोशिश और फिर उनका उच्चारण करके इन सूक्ष्म चक्रों की शक्तियों को परखने की चेष्टा ना करें क्योकि अगर बिना किसी गुरु के सानिध्य में आप साधनाएं और बीज मन्त्रों का जाप करते हैं तो आपके जीवन में भले ही लाभ ना हो लेकिन हानि भी हो सकती है | लेकिन इसका मतलब ये नहीं की आप BASIC ध्यान क्रियाओं को करने से पीछे हटें , इसके लिए मैं जल्द ही एक और पोस्ट आपसे साझा करूंगा जो की आपके जीवन में बदलाव की नई शुरुआत होगी |

 मनुष्य शरीर में सात चक्र होते है| कुण्डलिनी मूलाधार और रीड की हड्डी के निचले हिस्से में चारो तरफ लिपटा हुआ, जब यह जाग्रत होता है और ऊपर की और गति करता है तो उसका उद्देश्य सातवें चक्र, सहस्रार तक पहुंचना होता है, लेकिन यदि व्यक्ति बीच में संयम और ध्यान छोड़ देता है तब यह गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है |

 आइये जानते हैं इन्ही चक्रों के रहस्यों को जो की मूलाधार से सहस्त्रार तक स्थूल रूप में ना ही दिखाई और महसूस होते हैं , क्योकि इनका निवास सूक्ष्म में होता है | 

1. मूलाधार चक्र

 मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।

मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।

मंत्र : इस चक्र का स्थान मेरु दंड के सबसे निचले  स्थिति होता है, इसका मूल मंत्र " लं " है |
व्यक्ति को पहले प्राणायाम कर के मूलाधार चक्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। धीरे धीरे चक्र जागृत होता है |

लाभ: इससे लाभ यह मिलता है की व्यक्ति के जीवन में लालच नाम की चीज खत्म हो जाता है ,और एक आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है व्यक्ति अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है और जिंदगी में बड़ी से बड़ी जिम्मेवारी लेने की क्षमता बढ़ जाता है। हौसला मजबूत होता है शारीरिक ऊर्जा बढ़ता है |

हानि: जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र

 

मूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर और नाभि से निचे यह चक्र स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं प्रशासनिक नेता, मन्त्री और राजा लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं। साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है।

मंत्र: इसका मूल मंत्र " वं " है। यह चक्र जल तत्त्व से सम्बंधित है।

लाभ: इस चक्र के जागृत होने पर शारीरिक समस्या समाप्त हो जाती है। शरीर में कोई भी विकार जल तत्त्व के ठीक न होने से होता है , इसके जाग्रत होने से जल तत्व का पूर्ण ज्ञान होता है , शारीरिक विकार का नाश हो जाता है ,जल सीधी की प्राप्ति हो जाती है |  इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।

हानि: यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त हो जाएगी | 


3. मणिपुर चक्र

 

नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर श्वास - प्रश्वास रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु - मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है(अर्थात शारीरिक अंगों का संचालन)। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे। 
मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।
मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है। यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
मंत्र: यह नाभि में स्थित होता है और इसके जागृत करने का मूल मंत्र " रं " है। इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है।
लाभ: यह चक्र जागृत होते है तब व्यक्ति सर्व शक्ति संपन्न हो जाता है। प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है ,जीवो की उत्पत्ति कैसे हुई इसका ज्ञान होता है। यहाँ तक की यह चक्र पूर्व जन्म का ज्ञान भी देता है , भाषा का ज्ञान देता है , अग्नि तत्त्व की सिद्धि देता है।

4. अनाहत चक्र

 

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश (12) दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।
सबका एक ही - यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है। जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है, तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है।
मंत्र: इसका मूल मंत्र " यं " है। व्यक्ति को यह चक्र जागृत करने के लिए हृदय पर ध्यान केंद्रित कर के इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
लाभ: अनाहत चक्र जागृत होते ही व्यक्ति को बहुत सारी सिद्धियाँ मिलती है। व्यक्ति को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से शक्ति प्राप्त होती है , यहाँ तक की यह चक्र जागृत हो जाये तो व्यक्ति सूक्षम रूप ले सकता है और शरीर त्यागने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आनद प्राप्त होता है। श्रद्धा प्रेम जागृत होता है।  वायु तत्त्व से सम्बंधित सिद्धियाँ प्राप्त होती है। योग शक्ति प्राप्त होती है।


5. विशुद्ध चक्र

 

कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं। कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है |
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।

मंत्र: व्यक्ति को कंठ पर अपना ध्यान एकत्रित कर " हं " मूल मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

लाभ: विशुद्ध चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र होता है। यह जागृत होते ही व्यक्ति को वाणी की सिद्धि प्राप्त होता है। इस चक्र के जागृत होने से आयु वृद्धि होती है , संगीत विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है , शब्द का ज्ञान होता है। व्यक्ति विद्वान होता है |




6. आज्ञा चक्र

 

भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, क्षं से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर  अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।
शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से  है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार' शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है ।
लाभ: यह चक्र जागृत होते ही अनंत सिद्धियाँ मिलती है , व्यक्ति इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने आप को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूक्षम रूप से ले जा सकता है। वह अपनी इच्छा से मोक्ष प्राप्त कर सकता है , उसको अनंत लोक का ज्ञान होता है , वह पूर्ण होता है। वह देव तुल्य होता है।

 सहस्त्रार कमलदल -


सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है। इसे "हजार पंखुडिय़ों वाले कमल”, "ब्रह्म रन्ध्र” (ईश्वर का द्वार) या "लक्ष किरणों का केन्द्र” भी कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार, अन्य सभी चक्रों की ऊर्जा और विकिरण सहस्रार चक्र के विकिरण में धूमिल हो जाते हैं।
सहस्रार चक्र में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति - मेधा शक्ति है। मेधा शक्ति एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क की प्रक्रियाओं जैसे स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करता है। योग अभ्यासों से मेधा शक्ति को सक्रिय और मजबूत किया जा सकता है।
सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। सभी नाडिय़ों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यहां अन्तरात्मा शिव की पीठ है। सहस्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है। जिस प्रकार सूर्योदय के साथ ही रात्रि ओझल हो जाती है, उसी प्रकार सहस्रार चक्र के जागरण से अज्ञान धूमिल (नष्ट) हो जाता है।
यह चक्र योग के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है- आत्म अनुभूति और ईश्वर की अनुभूति, जहां व्यक्ति की आत्मा ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है। जिसे यह उपलब्धि मिल जाती है, वह सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है - पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से पूरी तरह स्वतंत्र। ध्यान में योगी निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) सहस्रार चक्र पर पहुंचता है, यहां मन पूरी तरह निश्चल हो जाता है और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक में ही समाविष्ट होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं।
सहस्रार चक्र में हजारों पंखुडिय़ों वाले कमल का खिलना संपूर्ण, विस्तृत चेतना का प्रतीक है। इस चक्र के देवता विशुद्ध, सर्वोच्च चेतना के रूप में भगवान शिव है। इसका समान रूप तत्त्व आदितत्त्व, सर्वोच्च, आध्यात्मिक तत्त्व है। मंत्र वही है जैसा आज्ञा चक्र के लिए है-मूल जप ॐ।
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Tuesday, May 15, 2018

प्राणायाम एवं ध्यान पर बैठने की मुद्राएँ

 

 

 

 

 प्राणायाम एवं ध्यान पर बैठने की मुद्राएँ

योग में पाँच सर्वश्रेष्ठ बैठने की अवस्थाएँ/स्थितियाँ हैं :

  1. सुखासन - सुखपूर्वक (आलथी-पालथी मार कर बैठना)


  2.  सिद्धासन - निपुण, दक्ष, विशेषज्ञ की भाँति बैठना।
     
  3. वज्रासन - एडियों पर बैठना।

  4. अर्ध पद्मासन - आधे कमल की भाँति बैठना।


  5. पद्मासन - कमल की भाँति बैठना।
     

    6. पार्वती-आसन - दोनों पैरो के तलवो को परस्पर जोड़ें | 

     


ध्यान लगाने और प्राणायाम के लिये सभी उपयुक्त बैठने की अवस्थाओं के होने पर भी यह निश्चित कर लेना जरूरी है कि :

  • शरीर का ऊपरी भाग सीधा और तना हुआ है।
  • सिर, गर्दन और पीठ एक सीध में, पंक्ति में हैं।
  • कंधों और पेट की मांसपेशियों में तनाव न हो।
  • हाथ घुटनों पर रखें हैं।
  • आँखें बंद, मुँदी हैं।
  • अभ्यास के समय शरीर निश्चल रहे।

सुखासन : सुख पूर्वक बैठना

बैठने की इस मुद्रा की सिफारिश उन लोगों के लिए की जाती है जिन्हें लम्बे समय तक सिद्धासन, वज्रासन या पद्मासन में बैठने में कठिनाई होती हो।
अभ्यास :
पैरों को सीधा करके बैठ जाएं। दोनों पैरों को मोड़ें और, दाएं पैर को बाईं जाँघ के नीचे और बाएं पैर को नीचे या दाएं पैर की पिंडली के सामने फर्श पर रखें। यदि यह अधिक सुविधाजनक हो तो दूसरी ओर पैरों को ऐसे ही एक-दूसरी स्थिति में रख लें। यदि शरीर को सीधा रखने में कठिनाई हो, तो सुविधाजनक स्थिति में उपयुक्त उँचाई पर एक कुशन, आराम गद्दी बिछा कर बैठ जाएं।
यदि सुखासन में सुविधापूर्वक और बिना दर्द बैठना संभव न हो, तो एक कुर्सी पर बैठ कर श्वास और ध्यान के व्यायामों का अभ्यास करना चाहिए। हर किसी के लिए सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि शरीर का ऊपरी भाग सीधा रहे, शरीर तनाव रहित हो और पूरे अभ्यास के समय निश्चल रहे।

सिद्धासन : निपुण की आसन-मुद्रा

सिद्धासन मन-मस्तिष्क को शांत करता है, नाडिय़ों पर संतुलित प्रभाव रखता है और चक्रों की आध्यात्मिक ऊर्जा को पुनर्संचालित, अधिक सक्रिय कर देता है। अत: बैठने की यह मुद्रा प्राणायाम और ध्यान के लिए सर्वाधिक उपयुक्त (संगत) है।
अभ्यास :
टाँगों को सीधा कर बैठ जाएं। दाएं पैर को मोड़ें और फर्श पर शरीर के अति निकट पैर को रख दें। अब बाएं पैर को मोड़ें और बाएं पंजे को दाईं पिंडली के ऊपर रख दें। पैर को मोड़ें और एडी दाईं जंघा का स्पर्श करेगी। दाएं पैर की अँगुलियों को बाएं पैर की जंघा और पिंडली के बीच से ऊपर खींचें। बाएं पैर की अँगुलियों को दाएं खींचें। यदि शरीर को सीधा रख पाना कठिन हो या घुटने फर्श को न छू पाएं तो एक उपयुक्त ऊँचाई पर एक आराम गद्दी पर बैठ जाएं।
बाएं पैर को पहले मोड़ कर और दाएं पंजे को बाएं पिंडली-भाग के पास लाकर यह व्यायाम संभव है।

वज्रासन- एडियों पर बैठना

वज्रासन शरीर और मन-मस्तिष्क में एकात्म, सामंजस्य बनाए रखता है। यह पाचन-क्रिया को भी समृद्ध करता है। अत: भोजन के बाद लगभग 5-10 मिनट तक वज्रासन की स्थिति में बैठने की सिफारिश की जाती है।
अभ्यास :
घुटनों के बल आ जाएं। दोनों टाँगें एक साथ हैं। दोनों अंगूठे एक-दूसरे को छूते हैं, एडियाँ थोड़ी-सी बाहर को निकलती हुई हैं। शरीर के ऊपरी भाग को कुछ आगे की ओर झुकाएं और फिर वापस एडियों पर बैठ जाएं। धड़ सीधा रहता है। हाथों को जाँघों पर रख लें।

अर्ध पद्मासन : आधा कमल

जो व्यक्ति पद्मासन में आसानी से न बैठ पाएं उनके लिये इस आसन की सिफारिश की जाती है।
अभ्यास :
टाँगों को सीधा रख कर बैठ जायें। दायीं टाँग को मोड़ें और पंजे को शरीर के अति निकट फर्श पर रख दें। अब बायां पैर मोडें, पैर को शरीर के अति निकट दायीं जंघा पर रख दें। ऊपरी शरीर का भाग बिलकुल सीधा है। दोनों घुटने फर्श पर रहेंगे यदि शरीर को बिलकुल सीधा तना कर न रखा जाये या घुटनों को फर्श पर न लगाया जाये तो उपयुक्त ऊँचाई पर एक आराम गद्दी लगाकर बैठा जाये।
इस अभ्यास को बाईं टाँग पहले मोड़ कर और दायें पैर को बायीं जंघा के ऊपर रखकर भी किया जा सकता है।

पद्मासन : कमल

शीर्षासन सहित पद्मासन को आसनों में सर्वश्रेष्ठ या शाही आसन के रूप में जाना जाता है। कमल अवस्था चक्रों को सक्रिय करती है और उनमें संतुलन बनाती है तथा विचारों को शान्त करती है। प्राणायाम और ध्यान के लिये यह बैठने की आदर्श अवस्था है।
अभ्यास :
फर्श पर टाँगों को सीधा करके बैठ जायें। दायीं टाँग को मोड़ें और पैर को बायीं जंघा के ऊपर शरीर के अति निकट ले आयें। अब बायीं टाँग को मोड़ें और पैर के पंजे को दांयी जंघा के ऊपर शरीर के अति निकट ले आयें। शरीर का ऊपरी भाग बिलकुल सीधा रहना चाहिये और घुटनों को फर्श पर विश्राम देने के लिये उपयुक्त ऊँचाई पर रखी आराम गद्दी पर बैठना चाहिये।
इसी स्थिति का अभ्यास पहले बाईं टाँग फिर दाईं टाँग मोड़कर भी किया जा सकता है।

 पार्वती आसन

विधि :

समतल भूमि पर सामान्य मुद्रा में बैठ जायें| अब दोनों पैरों को मोड़कर उनके तलवों और उंगलियों को एक दूसरे से मिला दें| इसके बाद दोनों पैरों को खींचकर अंडकोषों का नजदीक ले जाकर एडियों को गुदास्थान से लगा दें| पैरों को इस तरह से लगाये की पंजे अंडकोषों से बाहर की तरफ रहें| अब दोनों हाथों से घुटनों पर दबाव डालकर घुटनों को ज़मीन से सटा दें| शरीर व गर्दन को बिल्कुल सीधा रखें|

पार्वती आसन  के लाभ :

1.    इस आसन का नियमित अभ्यास करने से घुटने, पैरों की उंगलियां, जांघों के जोड़ मजबूत और लचीले बनाये जा सकते है|
2.      इस आसन द्वारा बवासीर और भगंदर जैसे रोग भी ठीक किये जा सकते है|
3.      पार्वती आसन  पैरों की उंगलियों, टखनों, घुटने, जांघों के साथ साथ अंडकोषों और सीवन के सभी रोगों का नाश करने में सहायक होता है|
4.      ब्रह्म्चारिणी स्त्रियों को यह आसन बहुत ही लाभ पहुंचाता है|
5.      यह आसन वीर्यवाही नसों को शुद्ध व पवित्र बनाने की शक्ति प्रदान करता है|
6.      इस आसन से मूत्र सम्बन्धी दोषों को भी ठीक करके योनी के सभी विकार दूर किये जा सकते है|

हाथों की स्थिति

श्वास और ध्यान एकाग्र करने के व्यायामों में और ध्यान लगाने के लिये भी विशिष्ट मुद्राओं का उपयोग किया जाता है। मुद्रा या स्थिति वह अवस्था है जिसका अभ्यास एक विशिष्ट उद्देश्य की अभिव्यक्ति के लिये किया जाता है।

चिबुक (ठोडी) मुद्रा - ध्यानावस्था में अगुंलियों की स्थिति

अभ्यास :
ध्यानावस्था में हाथों को घुटनों पर रखें जिसमें हथेलियाँ ऊपर की ओर होंगी। अंगूठा और तर्जनी अंगुली एक दूसरे का स्पर्श करते हैं और शेष तीन अँगुलियाँ सीधी परन्तु तनाव-रहित रहेंगी।
चिबुक मुद्रा व्यक्ति की चेतनता का ब्रह्माण्ड के स्व से मिलन दर्शाता है। तर्जनी अँगुली वैयक्तिक चेतना को और अंगूठा ब्रह्माण्ड की चेतनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। शेष तीन अँगुलियाँ तीन गुणों, विश्व के तीन मूल गुणों की संकेतक हैं। [1] योगी का लक्ष्य तीन गुणों* के परे जाना और ब्रह्माण्ड के स्व से मिल जाना होता है।

प्राणायाम मुद्रा - श्वास अभ्यासों में हाथों की स्थिति

अभ्यास :
दायें हाथ की तर्जनी अँगुली और मध्यमा अँगुली को मस्तक के मध्य में भौंहों के बीच रख लें। अगूँठे का उपयोग दायें नथुने को बंद करने और अनामिका का उपयोग बायें नथुने को बंद करने के लिये किया जाता है।
यदि दायां हाथ थक जाये तो बायें हाथ से भी इस अभ्यास को करना संभव है।
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Labels: YOG

Sunday, May 6, 2018

आद्या शक्ति के विभिन्न रूपों में दस महाविद्याओं का संक्षिप्त परिचय तथा वर्णन

NOTE:-  महाविद्याओं के मन्त्रों का उच्चारण या पूजा विधियां किसी श्रेष्ठ गुरु के सानिध्य में ही करें क्योंकि अगर आपसे कोई भूल चूक होती है तो वो आपको जीवन भर कष्ट देगी क्योकि ये कोई आम विद्याएं नहीं है किसी को माह , साल या कई जन्म भी लग जाते हैं इन विद्याओं को साधने में इसलिए बिना किसी गुरु की देखरेख में इनके मंत्रो का उच्चारण भी ना करें |


जगत पालनकर्ता भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति सर्व-स्वरूपा योगमाया-आदि शक्ति महामाया हैं तथा देवी ही प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से संपूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारण भूता हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की उत्पत्ति इन्हीं के अनुसार हुई हैं। सृष्टि के सुचारु सञ्चालन हेतु, भगवान विष्णु पालनहार, ब्रह्मा रचनाकार, तथा शिवसंहारक पद, महामाया आद्या शक्ति द्वारा ही इन महा-देवों को प्राप्त हैं। क्रमशः तीनों महा देव तीन प्राकृतिक गुणों के कारक बने सत्व गुण, रजो गुण तथा तमो गुण, संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन इन्हीं गुणों के द्वारा ही होता हैं; परन्तु इन कार्यों की इच्छा शक्ति, आदि शक्ति की आधारभूत शक्ति हैं। त्रि-देवों के अनुसार ही इनकी जीवन संगिनी त्रि-देवियाँ भी इन कार्यों में संलग्न रहती हुई अपने-अपने स्वामी की शक्तियां हैं। त्रि-देवियाँ या महा-देवियाँ महा-लक्ष्मी, मह-सरस्वती तथा पार्वती-सती के रूप में, त्रि-देवों की जीवन संगिनी तथा सहायक हैं। महा-लक्ष्मी के रूप में ये भगवान विष्णु कि सात्विक शक्ति हैं, महा-सरस्वती के रूप में ये बब्रह्मा जी की राजसिक शक्ति हैं तथा पार्वती-सती के रूप में ये शिव के तामसी शक्ति हैं।
साक्षात आदि शक्ति महामाया ही शिवा स्वरूपी शिवअर्धाग्ङिनी पार्वती एवं सती हैं और तामसी संहारक शक्ति होने के फल स्वरूप समय-समय पर भयंकर धारण करती हैं। परन्तु उनका भयंकर रूप, केवल दुष्टों हेतु ही भय उत्पन्न करने वाला तथा विनाशकारी हैं। देवी! सौम्य, सौम्य-उग्र तथा उग्र तीन रूपों में अवस्थित हैं तथा स्वभाव के अनुसार दो कुल में विभाजित हैं, काली कुल तथा श्री कुल।अपने कार्य तथा गुण के अनुसार देवी अनेकों अवतारों में प्रकट हुई, ऐसा नहीं हैं कि इनके सभी रूप भयानक हैं; सौम्य स्वरूप में देवी कोमल स्वभाव वाली हैं, सौम्य-उग्र स्वरूप में देवी कोमल और उग्र (सामान्य) स्वभाव वाली हैं तथा उग्र रूप में देवी अत्यंत भयानक हैं। महा-देवियाँ, दस महाविद्या, योगिनियाँ, डाकिनियाँ, पिसाचनियाँ, भैरवी इत्यादि महामाया आदि शक्ति के नाना अवतार हैं, सभी केवल गुण एवं स्वभाव से भिन्न-भिन्न हैं। काली कुल की देवियाँ प्रायः घोर भयानक स्वरूप तथा उग्र स्वभाव वाली होती हैं तथा इन का सम्बन्ध काले या गहरे रंग से होता हैं; इसके विपरीत श्री कुल के देवियाँ सौम्य तथा कोमल स्वभाव की तथा लाल रंग या हलके रंग से सम्बंधित होती हैं।
काली कुल की की देवियों में महाकाली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी हैं, जो स्वभाव से उग्र हैं। (परन्तु, इनका स्वभाव दुष्टों के लिये ही भयानक हैं) श्री कुल की देवियों में महा-त्रिपुरसुंदरी, त्रिपुर-भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला हैं, देवी धूमावती को छोड़ कर सभी सुन्दर रूप तथा यौवन से संपन्न हैं।
इस प्रकार १. महा काली २. तारा ३. श्री विद्या महा त्रिपुरसुंदरी ४. भुवनेश्वरी ५. छिन्नमस्ता ६. त्रिपुर-भैरवी ७. धूमावती ८. बगलामुखी ९. मातंगी १०. कमला, मिलकर दस महाविद्या समूह का निर्माण करती हैं, इनमें से प्रत्येक देवियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के शक्तियों तथा ज्ञान से परिपूर्ण हैं, उन शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं।

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका।
एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्राकृर्तिता।
एषा विद्या प्रकथिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता।।


"काल (मृत्यु) का भी भक्षण करने में समर्थ, घोर भयानक स्वरूप वाली प्रथम महा-शक्ति महा-काली, साक्षात योगमाया भगवान विष्णु के अन्तः करण की शक्ति"।
काली कुल की सर्वोच्च दैवीय शक्ति महा काली, कर्म-फल प्रदाता, अभय प्रदान करने वाली महा-शक्ति! 


महा-काली।

अपने भैरव महा-काल की छाती पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी, घनघोर-रूपा महाशक्ति महा काली के नाम से विख्यात हैं। वास्तव में देवी महा-कालीसाक्षात महा-माया आदि शक्ति ही हैं; ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार से उत्पन्न शक्ति! आद्या शक्ति या आदि शक्ति काली नाम से विख्यात हैं। अंधकार से जन्मा होने के कारण देवी काले वर्ण वाली तथा तामसी गुण सम्पन्न हैं। इन्हीं की इच्छा शक्ति ने ही इस संपूर्ण चराचर जगत उत्पन्न किया हैं तथा समस्त शक्तियां प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से इन्हीं की नाना शक्तियां हैं। देवताओं द्वारा प्रताड़ित हो सहायतार्थ महामाया की स्तुति करने पर साक्षात आदि शक्ति ही पार्वती के शरीर से कौशिकी रूप में प्रकट हुई थीं।
प्रलय काल में देवी स्वयं मृत्यु के देवता महा-काल का भी भक्षण करने में समर्थ हैं; देखने में महा-शक्ति महाकाली अत्यंत भयानक एवं डरावनी हैं, असुर जो स्वभाव से ही दुष्ट थे उनके रक्त की धर बह युक्त हाल ही में कटे हुए मस्तकों की माला देवी धारण करती हैं। इनके दंत-पंक्ति अत्यंत विकराल हैं, मुंह से निकली हुई जिह्वा को देवी ने अपने भयानक दन्त पंक्ति से दबाये हुए हैं; अपने भैरव या स्वामी के छाती में देवी खड़ी हैं, कुछ-एक रूपों में देवी दैत्यों के कटे हुए हाथों की करधनी धारण करती हैं। देवी महा-काली चार भुजाओं से युक्त हैं; अपने दोनों बाएँ हाथों में खड़ग तथा दुष्ट दैत्य का हाल ही कटा हुआ सर धारण करती हैं जिससे रक्त की धार बह रहीं हो तथा बाएँ भुजाओं से सज्जनों को अभय तथा आशीर्वाद प्रदान करती हैं। इनके बिखरे हुए लम्बे काले केश हैं, जो अत्यंत भयानक प्रतीत होते हैं, जैसे कोई भयानक आँधी के काले विकराल बादल समूह हो। देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा बालक शव को देवी ने कुंडल रूप में अपने कान में धारण कर रखा हैं। देवी रक्त प्रिया तथा महा-श्मशान में वास करने वाली हैं, देवी ने ऐसा भयंकर रूप रक्तबीज के वध हेतु धारण किया था।
भगवान विष्णु जो इस चराचर जगत के पालन कर्ता एवं सत्व गुण सम्पन्न हैं, परन्तु उनके अन्तः कारण की संहारक शक्ति साक्षात् महा-काली ही हैं; जो नाना उपद्रवों में उनकी सहायता कर दैत्यों-राक्षसों का वध करती हैं। प्रकारांतर से देवी के दो भेद हैं एक दक्षिणा काली तथा द्वितीय महा-काली।




द्वितीय महाविद्या भगवती तारा, ब्रह्मांड में उत्कृष्ट तथा सर्व ज्ञान से समृद्ध हैं, घोर संकट से मुक्त करने वाली महाशक्ति।
जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करने वाली

महा-शक्ति! तारा।


महाविद्या महा-काली ने हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला शारीरिक वर्ण धारण किया तथा देवी का वह उग्र स्वरूप उग्र तारा के नाम से विख्यात हुई। देवी प्रकाश बिंदु रूप में आकाश के तारे के सामान विद्यमान हैं, फलस्वरूप वे तारा नाम से विख्यात हैं। देवी तारा,भगवान राम की वह विध्वंसक शक्ति हैं, जिन्होंने रावण का वध किया था। महाविद्या तारा मोक्ष प्रदान करने तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र से हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु। भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा के निवारण हेतु, इन्हीं देवी तारा ने माता की भांति भगवान शिव को शिशु रूप में परिणति कर, अपना अमृतमय दुग्ध पान कराया था। फलस्वरूप, भगवान शिव को उनकी शारीरिक पीड़ा 'जलन' से मुक्ति मिली थीं, महा-विद्या ताराजगत जननी माता के रूप में एवं घोर से घोर संकटो की मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई। देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हैं।
मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वह सब इन्हीं देवी तारा या नील सरस्वती का स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महा-श्मशान हैं, देवी ज्वलंत चिता में रखे हुए शव के ऊपर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये  खड़ी हैं, (कहीं-कहीं देवी बाघाम्बर भी धारण करती हैं) नर खप्परों तथा हड्डियों की मालाओं से अलंकृत हैं तथा इनके आभूषण सर्प हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।




तीनों लोकों में सर्वाधिक सुन्दर तथा मनोरम, एक सोलह वर्षीय चिर यौवन युवती महा त्रिपुरसुंदरी नामक तृतीय महाविद्या।
सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली महाविद्या, श्री कुल की अधिष्ठात्री! 

महा त्रिपुरसुंदरी।

महाविद्या महा त्रिपुरसुंदरी स्वयं आद्या या आदि शक्ति हैं, इनके षोडशी, राज-राजेश्वरी, बाला, ललिता, मिनाक्षी, कामेश्वरी अन्य नाम भी विख्यात हैं। अपने नाम के अनुसार देवी तीनों लोकों में सर्वाधिक सुंदरी हैं तथा चिर यौवन युक्त १६ वर्षीय युवती हैं, इनकी रूप तथा यौवन तीनों लोकों में सभी को मोहित करने वाली हैं। मुख्यतः सुंदरता तथा यौवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के परिणामस्वरूप, मोहित कार्य और यौवन स्थाई रखने हेतु महाविद्या त्रिपुरसुंदरीकी साधना उत्तम मानी जाती हैं। सोलह अंक जो पूर्णतः का प्रतीक हैं (सोलह की मात्रा में प्रत्येक वस्तु पूर्ण मानी जाती हैं, जैसे १६ आना एक रुपये होता हैं), देवी सोलह प्रकार की कलाओं से पूर्ण हैं और सोलह प्रकार के मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं; तात्पर्य हैं सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं कारणवश महाविद्या षोडशी नाम से विख्यात हैं। देवी ही श्री रूप में धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्री शक्ति के नाम से विख्यात हैं, इन्हीं महाविद्या की आराधना कर कमला नाम से विख्यात दसवी महाविद्या धन की अधिष्ठात्री हुई तथा श्री की उपाधि प्राप्त की। श्री यंत्र जो यंत्र शिरोमणि हैं, साक्षात् देवी का स्वरूप हैं; देवी की आराधना-पूजा श्री यंत्र में की जाती हैं। कामाख्या पीठ महाविद्या त्रिपुरसुन्दरी से ही सम्बंधित तंत्र पीठ हैं,।
देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध पारलौकिक शक्तियों से हैं, समस्त प्रकार की दिव्य, अलौकिक तंत्र तथा मंत्र शक्तिओं (इंद्रजाल) की देवी अधिष्ठात्री हैं। तंत्र मैं उल्लेखित मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन इत्यादि , कर्म इनकी कृपा के बिना पूर्ण नहीं होते हैं। अपने भक्तों को हार प्रकार की शक्ति देने में समर्थ हैं देवी षोडशी,चिर यौवन तथा सुन्दरता प्रदाता हैं देवी त्रिपुरसुंदरी, राज-राजेश्वरी रूप में देवी ही तीनों लोकों का शासन करने वाली हैं।
देवी शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल-आसन पर बैठी हुई हैं, इनके चार भुजाएं हैं तथा अपने चार भुजाओं में देवी पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करती हैं। देवी के आसन को ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा यम-राज अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं; देवी तीन नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं, सहस्रों उगते हुए सूर्य के समान कांति युक्त देवी का शारीरिक वर्ण हैं।




तीनों लोकों (स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी) की महारानी पद पर अवस्थित, चौथी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम से विख्यात हैं, सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाली जगत-धात्री।
तीनों लोकों का पालन पोषण करने वाली ईश्वरी 

महाविद्या भुवनेश्वरी।
4 (चतुर्थ ) दस महाविद्याओं  में

तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं, महाविद्याओं में देवी चौथे स्थान पर अवस्थित हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या तीनों लोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, कारणवश देवी जगन-माता तथा जगत-धात्री नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल, जिनसे चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं द्वारा संचालित होता हैं, पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं। देवी कि इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा हैं तथा देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं।
देवी भुवनेश्वरी, भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिया दंड का विधान भी करती हैं, इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री,प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंग-कांति युक्त युवती हैं; देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र सुशोभित हैं एवं तीन नेत्र हैं तथा मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, दाहिने भुजाओं से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं तथा बाएं भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं; देवी नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं।
दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो समस्त देवता तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जाकर इन्हीं भुवनेशी देवी की स्तुति की थीं। सताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों-जलाशयों को अपने अश्रु जल से भर दिया था, शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में नाना शाक-मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया। अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर, तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया तथा दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई।


महाविद्याओं में पाँचवाँ स्थान पर अवस्थित महाविद्या छिन्नमस्ता हैं, अनावश्यक तथा अत्यधिक वासनाओं, मनोरथों का स्व-त्याग या बलिदान की प्रतीक।
बढ़ी हुई कामनाओं से उत्पन्न विनाश की प्रतीक, 

महाविद्या छिन्नमस्ता।

5 (पंचम) दस महाविद्याओं में

छिन्नमस्ता शब्दों दो शब्दों के योग से बना हैं: प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता।दोनों शब्दों का अर्थ हैं, छिन्न : अलग या पृथक तथा मस्ता : मस्तक, इस प्रकार जिनका मस्तक देह से अलग हैं वे छिन्नमस्ता कहलाती हैं। महाविद्याओं की श्रेणी में महाविद्या छिन्नमस्ता पाँचवें स्थान पर अवस्थित हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने अन्य हाथ में धारण की हुई हैं। मस्तक कट जाने के पश्चात भी देवी जीवित हैं, यह देवी की श्रेष्ठ योग साधना की ओर इंगित करती हैं; योग साधना के उच्चतम स्तर पर अवस्थित हैं महाविद्या छिन्नमस्ता। देवी, प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं, जो अत्यंत उग्र स्वभाव वाली हैं।
देवी का यह स्वरूप घोर डरावना, भयंकर तथा उग्र हैं, देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप अन्य समस्त देवी-देवताओं से भिन्न हैं। देवी स्वयं ही तीनों गुण सात्विक, राजसिक तथा तामसिक का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र पर टिका हुआ हैं। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं; बौद्ध धर्म में देवी, छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से जानी जाती हैं। देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन की उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणामस्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छा पर नियंत्रण की प्रतीक हैं। महाविद्या छिन्नमस्ता योग अभ्यास के पर्यन्त इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन का प्रतिनिधित्व करती हैं।
महाविद्या छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं, जिसे कोई सिद्ध पुरुष ही जान सकता हैं। देवी के कटे हुए गले से रक्त की तीन धार निर्गत हो रही हैं, जिनमें से देवी एक धार से स्वयं रक्त-पान कर रहीं हैं तथा अन्य दो धाराएँ इन्होंने अपने सखी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान कर रखी हैं। इनके साथ इनकी दो सखी सहचरी डाकिनी तथा वारिणी हैं; जिनके क्षुधा निवारण हेतु ही देवी ने अपने ही खड्ग से स्वयं अपने मस्तक को अलग कर दिया। देवी कामदेव-तथा रति के ऊपर विराजमान हैं, यहाँ वे काम या अत्यधिक अनावश्यक वासनाओं से उत्पन्न विनाश को प्रदर्शित कर रहीं हैं। देवी के आभूषण सर्प हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा इन्होंने नर-मुंडो की माला धारण कर राखी हैं।



छठी महाविद्या त्रिपुर-भैरवी नाम से विख्यात हैं, देवी का स्वरूप अत्यंत उग्र, भयंकर तथा डरावनी हैं।
विध्वंस की पूर्ण शक्ति हैं महाविद्या त्रिपुर-भैरवी, भगवान शिव के विध्वंसक प्रवृति की प्रतीक।
6 (षष्ठी) दस महाविद्याओं में

त्रिपुर भैरवी स्वरूप में छठी महाविद्या के रूप में अवस्थित हैं। त्रिपुर शब्द का अर्थ हैं, तीनों लोक! स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तथा भैरवी शब्द विनाश के एक सिद्धांत के रूप में अवस्थित हैं। तात्पर्य हैं तीन लोकों में नष्ट या विध्वंस की जो शक्ति हैं, वही भैरवी हैं। देवी पूर्ण विनाश से सम्बंधित हैं तथा भगवान शिव जिनका सम्बन्ध विध्वंस या विनाश से हैं, देवी त्रिपुर भैरवी उन्हीं का एक भिन्न रूप मात्र हैं। देवी भैरवी विनाशकारी प्रकृति के साथ, विनाश से सम्बंधित पूर्ण ज्ञानमयी हैं; विध्वंस काल में अपने भयंकर तथा उग्र स्वरूप सहित, शिव की उपस्थिति के साथ संबंधित हैं। देवी तामसी गुण सम्पन्न हैं, देवी का सम्बन्ध विध्वंसक तत्वों तथा प्रवृति से हैं, देवी! कालरात्रि या काली के रूप समान हैं।
देवी का सम्बन्ध विनाश से होते हुए भी वे सज्जन मानवों हेतु नम्र हैं; दुष्ट प्रवृति युक्त, पापी मानवों हेतु उग्र तथा विनाशकारी शक्ति हैं महाविद्या त्रिपुर-सुंदरी; दुर्जनों, पापियों हेतु देवी की शक्ति ही विनाश कि ओर अग्रसित करती हैं। इस ब्रह्मांड में प्रत्येक तत्व नश्वर हैं तथा विनाश के बिना उत्पत्ति, नव कृति संभव नहीं हैं। केवल मात्र विनाशकारी पहलू ही हानिकर नहीं हैं, रचना! विनाश के बिना संभव नहीं हैं, तथापि विनाश सर्वदा नकारात्मक नहीं होती हैं, सृजन और विनाश, परिचालन लय के अधीन हैं जो ब्रह्मांड के दो आवश्यक पहलू हैं। देवी कि शक्ति ही, जीवित प्राणी को मृत्यु की ओर अग्रसित करती हैं तथा मृत को पञ्च तत्वों में विलीन करने हेतु। भैरवी शब्द तीन अक्षरों से मिल कर बना हैं, प्रथम 'भै या भरणा' जिसका तात्पर्य 'रक्षण' से हैं, द्वितीय 'र या रमणा' रचना तथा 'वी या वमना' मुक्ति से सम्बंधित हैं; प्राकृतिक रूप से देवी घोर विध्वंसक प्रवृति से सम्बंधित हैं।
योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी हैं महाविद्या त्रिपुर-भैरवी; देवी की साधना मुख्यतः घोर कर्मों में होती हैं, देवी ने ही उत्तम मधु पान कर महिषासुर का वध किया था। समस्त भुवन देवी से ही प्रकाशित हैं तथा एक दिन इन्हीं में लय हो जाएंगे, भगवान् नरसिंह की अभिन्न शक्ति हैं देवी त्रिपुर भैरवी। देवी गहरे शारीरिक वर्ण से युक्त एवं त्रिनेत्रा हैं तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं। चार भुजाओं से युक्त देवी भैरवीअपने बाएं हाथों से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं और दाहिने हाथों में मानव खप्पर तथा खड्ग धारण करती हैं। देवी रुद्राक्ष तथा सर्पों के आभूषण धारण करती हैं, मानव खप्परों की माला देवी अपने गले में धारण करती हैं।


दस महाविद्याओं में सातवें स्थान में अवस्थित भगवान शिव की विधवा, कुरूप तथा अपवित्र देवी धूमावती।
दुर्भाग्य, दरिद्रता, अस्वस्थता, कलह की देवी, 

महाविद्या धूमावती।




महाविद्या धूमावती अकेली एवं स्व: नियंत्रक हैं, इनके स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हैं तथा देवी भगवान शिव की विधवा हैं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी धूमावती सातवें स्थान पर अवस्थित हैं तथा उग्र स्वभाव वाली अन्य देवियों के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं। देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात उस स्थिति से हैं, जहां वे अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। महाप्रलय के पश्चात केवल मात्र देवी की शक्ति ही चारों ओर विद्यमान रहती हैं; देवी का स्वरूप धुएं के समान हैं। तीव्र क्षुधा हेतु इन्होंने अपने पति भगवान शिव का ही भक्षण किया था, जिसके पश्चात शिव जी धुएं के रूप में देवी के शरीर से बाहर निकले थे; देवी धुएं के रूप में अवस्थित रहती हैं।
देवी दरिद्रों के गृह में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से विख्यात हैं। अलक्ष्मी, देवी लक्ष्मी की बहन हैं, परन्तु गुण तथा स्वभाव से पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त पश्चात प्रदोष काल पश्चात रहती हैं तथा देवी अंधकारमय स्थानों पर आश्रय लेती हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वह शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामों में निऋति भी हैं, जिनका सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सड़न, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से हैं जो जीवन में नकारात्मक भावनाओं को जन्म देता हैं। देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओं, सुख, धन तथा समृद्धि का नाश कर देती हैं, देवी कलह प्रिया हैं, अपवित्र स्थानों में वास करती हैं। रोग, दुर्भाग्य, कलह, निर्धनता, दुःख के रूप में देवी विद्यमान हैं।
देवी धूमावती का स्वरूप अत्यंत ही कुरूप हैं, भद्दे एवं विकट दन्त पंक्ति हैं, एक वृद्ध महिला के समान देवी दिखाई देती हैं। विधवा होने के कारण देवी श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, श्वेत वर्ण ही इन्हें प्रिय हैं, तीन नेत्रों से युक्त भद्दी छवि युक्त हैं देवी धूमावती। देवी रुद्राक्ष की माला आभूषण रूप में धारण करती हैं, इनके हाथों में एक सूप हैं; माना जाता हैं देवी जिस पर कुपित होती हैं उसके समस्त सुख इत्यादि अपने सूप पर ही ले जाती हैं। इन्होंने ही अपने शरीर से उग्र-चंडिका को प्रकट किया हैं, देवी सर्वदा ही अतृप्त हैं, इनकी क्षुधा निवारण आज तक नहीं हुई हैं; असुरों के कच्चे मांस से इनकी अंगभूत शिखाएं तृप्त हुई थीं।


महाविद्याओ में आठवें स्थान पर विद्यमान महाविद्या बगलामुखी, पीताम्बरा नाम से प्रसिद्ध, पीले रंग से पूर्ण सम्बंधित।
स्तंभन कर्म की अधिष्ठात्री 

महाविद्या बगलामुखी।

बगलामुखी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला बगला तथा दूसरा मुखी। बगला से अभिप्राय हैं 'विरूपण का कारण' और मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का सम्बन्ध मुख्यतः स्तम्भन कार्य से हैं, फिर वह मनुष्य मुख, शत्रु, विपत्ति हो या कोई घोर प्राकृतिक आपदा। महाविद्या बगलामुखी महाप्रलय जैसे महा-विनाश को भी स्तंभित करने की पूर्ण शक्ति रखती हैं; देवी स्तंभन कार्य की अधिष्ठात्री हैं। स्तंभन कार्य के अनुरूप देवी ही ब्रह्म अस्त्र का स्वरूप धारण कर, तीनों लोकों में किसी को भी स्तंभित कर सकती हैं। शत्रओं का नाश तथा कोर्ट-कचहरी में विजय हेतु देवी की कृपा अत्यंत आवश्यक हैं, विशेषकर झूठे अभियोगों प्रकरणों हेतु।
देवी! पीताम्बरा नाम से त्रि-भुवन में प्रसिद्ध हैं, पीताम्बरा शब्द भी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला पीत  तथा दूसरा अम्बरा; अभिप्राय हैं पीले रंग का अम्बर धारण करने वाली। देवी को पीला रंग अत्यंत प्रिय हैं, पीले रंग से सम्बंधित द्रव्य ही इनकी साधना-आराधना में प्रयोग होते हैं; वे पीले फूलो की माला धारण करती हैं, देवी पीले रंग के वस्त्र इत्यादि धारण करती हैं, पीले रंग से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। पञ्च तत्वों द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड निर्मित हुई हैं, जिनमें पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध पीले रंग से होने के कारण देवी को पीला  रंग प्रिय हैं। देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मक तथा ऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतिओं से कि जाती हैं, उर्ध्वमना स्वरूप में देवी दो भुजाओं से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाएं हैं।
महाविद्या बगलामुखी समुद्र मध्य स्थित मणिमय मंडप में स्थित रत्न सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए हैं, इनकी दो भुजाएँ हैं बाईं भुजा से इन्होंने शत्रु की जिह्वा पकड़ रखी हैं तथा दाहिने भुजा से इन्होंने मुगदर धारण कर रखी हैं। देवी का शारीरिक वर्ण सहस्रों उदित सूर्यों के सामान हैं तथा नाना प्रकार के अमूल्य रत्न जड़ित आभूषण से देवी सुशोभित हैं, देवी का मुख मंडल अत्यंत ही सुन्दर तथा मनोरम हैं। सत्य-युग में सम्पूर्ण पृथ्वी को नष्ट करने वाला वामक्षेप (तूफान) आया, जिस कारण प्राणियों के जीवन पर संकट छा गया। भगवान विष्णु ने देवी बगलामुखी की सहायता से ही उस घोर तूफ़ान का स्तंभन किया तथा चराचर जगत के समस्त जीवों के प्राणों की रक्षा की। देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु के तेज से हुआ, जिसके कारण देवी सत्व गुण संपन्न हैं।




महाविद्या मातंगी, तंत्र विद्या पारंगत "तांत्रिक-सरस्वती", संगीत तथा ललित कलाओं में महारत प्राप्त, नवीं महाविद्या।
निम्न जाती से सम्बद्ध, महान इंद्र-जाल से सम्बंधित विद्या से सम्पन्न! महाविद्या मातंगी।

महाविद्या मातंगी, महाविद्याओं में नवें स्थान पर अवस्थित हैं; देवी निम्न जाती एवं जनजातिओ से सम्बंधित रखती हैं। देवी का एक अन्य विख्यात नाम उच्छिष्ट चांडालिनी भी हैं, देवी तंत्र क्रियाओं में पारंगत हैं, पूर्ण तंत्र ज्ञान की ज्ञाता हैं। इंद्रजाल या जादुई शक्ति से देवी परिपूर्ण हैं, वाक् सिद्धि, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में निपुण, सिद्ध विद्याओं से सम्बंधित हैं। महाविद्या मातंगी, केवल मात्र वचन द्वारा त्रि-भुवन में समस्त प्राणिओं तथा अपने घनघोर शत्रु को भी वश करने में समर्थ हैं, जिसे सम्मोहन क्रिया या वशीकरण कहा जाता हैं; देवी सम्मोहन विद्या की अधिष्ठात्री हैं।
देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षी, जंगल, वन, शिकार इत्यादि से भी हैं तथा जंगल में वास करने वाले आदिवासिओ, जनजातिओ द्वारा देवी विशेषकर पूजिता हैं। ऐसा माना जाता हैं कि! देवी की ही कृपा से वैवाहिक जीवन सुखमय होता हैं; देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के परस्पर प्रेम से हुई थीं, तथापि पारिवारिक प्रेम हेतु देवी कृपा लाभकारी हैं। इस रूप में देवी चांडालिनीहैं तथा भगवान शिव चंडाल (चंडाल जो शमशान में शव दाह का कार्य करते हैं)।
महाविद्या मातंगी, मतंग मुनि की पुत्री रूप से भी जानी जाती हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध उच्छिष्ट भोजन पदार्थों से हैं, देवी तभी उच्छिष्ट चांडालिनी नाम से विख्यात हैं तथा देवी की आराधना हेतु उपवास की भी आवश्यकता नहीं होती। देवी कि आराधना हेतु उच्छिष्ट सामाग्रीओं की आवश्यकता होती हैं चुकी देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी। देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा की गई,माना जाता हैं! तभी से भगवान विष्णु सुखी, सम्पन्न, श्री युक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, देवी बौद्ध धर्मं में मातागिरी नाम से विख्यात हैं।
महाविद्या मातंगी श्याम वर्णा या नील कमल के समान कांति युक्त हैं, तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा अर्ध चन्द्र को अपने मस्तक पर धारण करती हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, इन्होंने अपने दाहिने भुजाओं में वीणा तथा मानव खोपड़ी धारण कर रखी हैं तथा बायें भुजाओं में खड़ग धारण करती हैं एवं अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी, लाल रंग की रेशमी साड़ी तथा अमूल्य रत्नों से युक्त नाना अलंकार धारण करती हैं, देवी के संग सर्वदा तोता पक्षी रहता हैं तथा ह्रीं बीजाक्षर का जप करता रहता हैं।


महाविद्या श्रेणी में दसवीं स्थान पर अवस्थित, दिव्य एवं मनोहर स्वरूप से संपन्न, पवित्रता तथा स्वच्छता से सम्बंधित, कमल के समान दिव्य महाविद्या कमला।
तांत्रिक लक्ष्मी, धन-संपत्ति, सुख, सौभाग्य प्रदाता! 

 महाविद्या कमला।

महाविद्या कमला या कमलात्मिका,महाविद्याओं में दसवें साथ पर अवस्थित हैं। देवी का सम्बन्ध सम्पन्नता, खुशहाल-जीवन, समृद्धि, सौभाग्य और वंश विस्तार जैसे समस्त सकारात्मक तथ्यों से हैं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी कमला अंतिम स्थान पर अवस्थित हैं, देवी पूर्ण सत्व गुण सम्पन्न हैं। स्वच्छता तथा पवित्रता देवी को अत्यंत प्रिय हैं तथा देवी ऐसे स्थानों में ही वास करती हैं। प्रकाश से देवी कमला का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, देवी उन्हीं स्थानों को अपना निवास स्थान बनती हैं जहां अँधेरा न हो; इसके विपरीत देवी के बहन अलक्ष्मी, ज्येष्ठा, निऋति जो निर्धनता, दुर्भाग्य से सम्बंधित हैं, अंधेरे एवं अपवित्र स्थानों को ही अपना निवास स्थान बनती हैं।
कमल के पुष्प के नाम वाली देवी कमला, कमल या पद्म पुष्प से सम्बंधित हैं। कमल पुष्प दिव्यता का प्रतीक हैं, कमल कीचड़ तथा मैले स्थानों पर उगता हैं, परन्तु कमल की दिव्यता मैल से कभी लिप्त नहीं होती हैं। कमल अपने आप में सर्वदा दिव्य, पवित्र तथा उत्तम रहती हैं, देवी कमला के स्थिर निवास हेतु अन्तःकरण की स्वच्छता तथा पवित्रता अत्यंत आवश्यक हैं। देवी की आराधना तीनों लोकों में दानव, दैत्य, देवता तथा मनुष्य सभी द्वारा की जाती हैं, क्योंकि सभी सुख तथा समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। देवी आदि काल से ही त्रि-भुवन के समस्त प्राणिओं द्वारा पूजित हैं। देवी की कृपा के बिना, निर्धनता, दुर्भाग्य, रोग इत्यादि जातक से सदा सम्बद्ध रहती हैं परिणामस्वरूप जातक रोग ग्रस्त, अभाव युक्त, धन-हीन रहता हैं। देवी ही समस्त प्रकार के सुख, समृद्धि, वैभव इत्यादि सभी को प्रदान करती हैं।
स्वरूप से देवी कमला अत्यंत ही दिव्य तथा मनोहर एवं सुन्दर हैं, इनकी प्राप्ति समुद्र मंथन के समय हुई थीं तथा इन्होंने भगवान विष्णु को पति रूप में वरन किया था। देवी कमला! तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जानी जाती हैं, श्री विद्या महा त्रिपुरसुन्दरी की आराधना कर देवी, श्री पद से युक्त हुई तथा महा-लक्ष्मी नाम से विख्यात भी। देवी की अंग-कांति स्वर्णिम आभा लिए हुए हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं एवं सुन्दर रेशमी साड़ी तथा नाना अमूल्य रत्नों से युक्त अलंकारों से सुशोभित हैं। देवी कमला चार भुजाओं से युक्त हैं, इन्होंने अपने ऊपर के दोनों भुजाओं में पद्म पुष्प धारण कर रखा हैं तथा निचे के दोनों भुजाओं से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित कर रहीं हैं। देवी को कमल का सिंहासन अति प्रिय हैं तथा वे सर्वदा कमल पुष्प से ही घिरी रहती हैं, हाथियों के झुण्ड देवी का अमृत से भरे स्वर्ण कलश से अभिषेक करते रहते हैं। 
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Friday, May 4, 2018

प्राणायामों के प्रकार एवं विधियां


जानिये हर प्राणायाम को करने की विधि

NOTE: बेहतर होगा किसी योग्य गुरु की देखरेख में ही योगासनों का अभ्यास करें। हर मनुष्य का शरीर और उसकी संरचना भिन्न होती है , निम्नलिखित प्राणायाम केवल एक संकेत मात्र हैं अगर आपको योग को सही तरह साधना है को किसी के सानिध्य में ही इनका अभ्यास करें।




9 महीने तक नियम से सुबह शाम आधा घंटा प्राणायाम को परहेजों के साथ करने से निश्चित रूप से हर खतरनाक से खतरनाक बीमारी में भी आराम मिलते देखा गया है !
प्राण स्वस्थ हो तो शरीर को कोई भी बीमारी छू नहीं सकती है !
सिर्फ एक मणिपूरक चक्र के ही जागने भर से शरीर के सभी रोगों का नाश होने लगता है जबकि भारतीय हिन्दू धर्म ग्रन्थों में बहुत से ऐसे अद्भुत योग, आसन व प्राणायाम का वर्णन है जो एक साथ कई चक्रों को जगाते हैं जिनसे पूरा शरीर ही एकदम स्वस्थ और दिव्य होने लगता है |
उदाहरण के तौर पर कभी बाबा रामदेव का शरीर टेलीविजन पर नहीं, बल्कि वास्तव में प्रत्यक्ष देखिये तब ही आपको समझ में आएगा कि सिर्फ योग, आसन व प्राणायाम कैसे, किसी भी मानव शरीर का बिना किसी मेकअप के, सही में कायाकल्प कर देते हैं !


प्राणस्य आयाम: इत प्राणायाम’। ”श्वासप्रश्वासयो गतिविच्छेद: प्राणायाम”- (यो.सू.2/49)
अर्थात प्राण की स्वाभाविक गति श्वास-प्रश्वास को रोकना प्राणायाम (Pranayama) है। सामान्य भाषा में जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम (pranayam) कहते हैं।
प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है और शरीर की असंख्य बीमारियो का खात्मा होता है।
सांस लेने की क्रिया के संबंध में योगशास्त्र (Ashtanga Yoga) के अनुसार 10 प्रकार की वायु बताई गई है। यह 10 प्रकार की वायु इस प्रकार है- प्राण, अपान, समान, उदान, ज्ञान, नाग, कूर्म, क्रीकल, देवदत्त और धनन्जय। अच्छे स्वास्थ्य में इन सभी प्रकार की वायु पर नियंत्रण करना अति आवश्यक है। प्राण के पाँच प्रकार हैं – अपान, व्यान, उदान, समान, प्राण। हमारा पूरा शरीर इसी प्राण के आधार पर चल रहा है। प्राण वायु का क्षेत्र कंठ नली से श्वास पटल के मध्य है, इसको यह प्राणवायु कंट्रोल करता है ।



1 प्राण वायु

स्थान: प्राण वायु शास्त्र के मत से मुख, नासिका, हृदय, नाभि में, कुण्डलिनी के चारो और तथा पदाँगुषठ में सर्वदा प्राण वायु रहता है
कार्य: प्राण वायु हृदय में रहकर श्वास बाहर भीतर निकालता है । तथा अन्न पानादिको का परिपाक(पचन) करता है ।
१- प्राण वायु- शरीर के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके द्वारा संपन्न होने वाली क्रियाएँ शरीर के जीवनयापन से सम्बन्ध रखती हैं ।। क्योंकि शरीर में चेतनता इसी के द्वारा रहती है ।।
वायुर्यो वक्त्रसंचारी सप्राणो नामदेहधृक ।।
सोडन्नं प्रवेशयत्यतः प्राणीश्चात्यवलम्बते ॥ (सु०नि०अ०१)
अर्थात् जो वायु मुख प्रदेश में संचरण करता है, वह प्राण वायु कहलाता है और वह शरीर को धारण करता है ।। इसके अतिरिक्त यह वायु मुख द्वारा ग्रहण किये हुए आहार को अंदर प्रविष्ट करता है ।।
स्थानं प्राणस्य मूधोर्रः कण्ठजिह्वास्यनासिकाः ।।
ष्ठीवन क्षवथुद्गार श्वासाहारादि कर्म च॥ (च०चि०अ०२८)
अर्थात् प्राण, वायु के मूर्धा, वक्ष प्रदेश, कण्ठ, जिह्वा, मुख, नासिका स्थान है । छींकना, थूकना, उद्गार, श्वास, आहारादि को ग्रहण करने का कार्य प्राण वायु के द्वारा किया जाता है ।। अष्टांग हृदयकार प्राण वायु के स्थान- मूर्धा, उर प्रदेश, कण्ठ प्रदेश बतलाते हैं और यह बुद्धि, हृदय, इंद्रिय और चित्त को धारण करता है ।।
प्राणोऽत्र मूर्धजः उरः कण्ठचरो बुद्धिहृदयेन्र्दिय चित्तधृक ।। (अ०हृ०सू०अ०१२)
प्राण वायु मुख्य रूप से वक्ष प्रदेश, कण्ठ प्रदेश और कण्ठ से ऊपर शिर प्रदेश में स्थित रहता है ।। यह मुख द्वारा ग्रहण किये हुए अन्न को अंतःप्रवेश कराने में सहायक होता है ।। फुफ्फुस की गति और क्रिया में सहायक होता है । विकृत होने पर श्वास कास, प्रतिश्याय, स्वर्ग आदि होते हैं ।।

2 अपान वायु

स्थान: । गुह्य , लिंग , उरु , जानु , उदर , पेड़ू , कटि , नाभि इन में अपान वायु रहता है ।
अपान वायु – – मूलाधार में मल मूत्र निकालने का कार्य करता है
अपान वायु– अपान वायु मुख्य रूप से शरीर के अधोभाग में रहती है और अधोमार्ग से बाहर निकलने वाले द्रव्यों के निष्कासन का कार्य करता है ।।
वृष्णौ बस्तिमेद्रं च नाम्यूरुवंक्षणोर् गुदम् ।।
अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्र मूत्र शकृन्ति च
सृजत्यात्तर्व गर्मों च…… (च०चि०अ०२८)
अर्थात् दोनों अण्डकोष, बस्ति प्रदेश, शिश्न, नाभि, उरु, वंक्षण प्रदेश, गुदप्रदेश और बृहदन्त्र है ।। इन स्थानों में स्थित रहता हुआ अपान वायु, शुक्र, मूत्र, पुरीष, आर्त्तव और गर्भ को बाहर निकालता है ।। कुपित होने पर यह अश्मरी, मूत्रकृच्छ, शुक्रदोष, अर्श, भगन्दर, गुदपाक आदि रोग उत्पन्न करता है ।।

३. व्यान वायु

स्थान: कर्ण , नेत्र , कंठ , नाक , मुख , कपोल , मणिबँध में ब्यान वायु रहता ।
कार्य: व्यान वायु – – – – सर्व शरीर में लेना छोड़ना आदि अंग धर्म करता है ।
  • व्यान वायु- व्यान वायु को सर्वशरीर व्यापी बताया गया है और इसके द्वारा मुख्य रूप से शरीर में रस के संवहन का कार्य किया जाता है ।। स्वेद और रुधिर का स्राव करता है ।।
सर्वदेहचरो व्यानो रससंवहनोधतः ।।
स्वेदा सृक्स्रावणश्चापि पञ्चधर चेष्टयत्यपि ॥ (सु०नि०अ०१)
महर्षि चरक के अनुसार शरीर के प्रत्येक अवयव में होने वाली क्रिया व्यान वायु के आधीन है ।। चाहे वह क्रिया ऐच्छिक हो या अनैच्छिक व्यान वायु के द्वारा उसे गति प्राप्त होती है ।। इस प्रकार व्यान वायु के द्वारा संपूर्ण चेष्टाएँ होती है और शरीर में रस का संवहन होता है ।। इसके कुपित होने पर ज्वर अतिसार रक्तपित्त यक्ष्मा प्रभृति सर्वाङ्ग रोग होते हैं ।।

4: उदान वायु

स्थान: सर्वसंधि तथा हाथ पेरौ में उदान वायु रहता है ।
उदान वायु – – – कंठ में रह कर शरीर कि वृद्धि करता है ।
उदान वायु– महर्षि चरक के अनुसार उदान वायु का स्थान नाभि प्रदेश, वक्ष एवं कण्ठ है ।। इसके द्वारा किये गये कर्मों में वाणी की प्रवृत्ति, शरीर की शक्ति प्रदान करना मुख्य है तथा शरीर के बल और वर्ण को स्थित रखना है ।।
उदानस्य पुनः स्थानं नाम्यूरः कण्ठ एव च ।।
वाक्प्रवृत्ति प्रयत्नोजार् बल वर्णादि कर्म च ।। (च०चि०अ०२८)
विकृत होने पर नेत्र, मुख, नासिका, कर्ण और शिरो रोग होते हैं ।।

5 समान वायु

स्थान: उदाराग्नि के कला को लेकर सर्वांग में समान वायु रहता है ।
समान वायु – – – – नाभि में शरीर को यथा स्थान रखने का काम करता है ।
३- समान वायु- समान वायु पाचक अग्नि के समीप आमाशय और ग्रहण में रहती है ।। इसका कार्य अन्न को पचाना, अग्नि को बल प्रदान करना तथा रस पुरीष और मूत्र को पृथक करना है ।। यह स्वेदवह, अम्बुवह स्रोतों का नियामक है ।।
स्वेद दोषाम्बुवाहीति स्रोतांसि समधिष्ठितः ।।
अन्तरग्नेश्च पाश्वर्स्थः समानोऽग्नि बलप्रदः॥(च०चि०अ०२८)
चरक के अनुसार स्थान जठराग्नि के समीप है ।। मुख्य कार्य अग्नि को बल प्रदान करना, परिपक्व आहार को सार एवं कीट भाग में विभाजित करना है ।। इसमें विकृति आने पर गुल्म मांद्य अग्नि अतिसार रोगों का प्रादुर्भाव होता है ।।

उपप्राण

1.नाग
2.= कूर्म
3.= कृकल
4.= देवदत्त
5.= धनंजय
इस कारण से प्राण आदि पाँच वायु प्रधान है । नागादि पाँच वायु जो चरम एवं हड्डी में रह कर कर्म करते हैं । इन का वर्णन आगे हैं ।

नाग

डकार निकालना नाग वायु का कर्म है ।

कुर्म

नेत्रों के पलक लगाना खोलना कूर्म वायु का कर्म है ।

कृकल

छींक करना कृकल वायु का कर्म है ।

देवदत्त

जम्हाई लेना देवदत्त वायु का कर्म है ।

धनंजय

धनंजय वायु सर्व शरीर में व्याप्त रहता है । मृत्यु शरीर में भी चार घंटे तक रहता है ।
इस प्रकार यह दस वायु आप ही जीव के अभ्यास से कल्पित होकर सुख दुःख का सम्बन्ध जीव को कराते हैं । मैं सुखी हूँ अथवा मैं दुःखी हूँ इत्यादि व्यवहार मय जीव की उपाधि लिंग शरीर में होने से आप ही जीव रुप होकर समस्त नाड़ीयों में फिरता रहता है ।
जेसे गेंद हाथ सभूमि पर तारण करने से स्वतः उछलता है वेसे ही प्राण वायु के स्थान पर अपान वायु , तथा अपान के स्थान पर प्राण वायु के प्राप्त होने में अपान वायु जीव को आकर्षण करके एकत्र स्थिति नहीँ रहने देता ।
जीव कारण से जीवात्मा प्राण , अपान के अधीन है । इसी कारण से ईडा , पिंगला नाड़ी के द्वारा गिर के नीचे मूलाधार परियन्त और ऊपर छिद्र नासिका छिद्र परियन्त फिरता ही रहता है । इसके अति चंचल होने से प्राण व अपान वायु के साधन बिना वायु नहीँ जीता जाता और इस के जीते बिना हृदय कमल में ध्यान नहीँ होता ।
जेसे बाज के पेर में डोरी बाँध कर छोड़ देने पर वह उड़ जाता है एवं खींचने पर फिर हाथ में आजाता है येसे ही माया के अंश सत्व – रज – तमोगुण की वासना से बँधा हुआ जीव बुद्धि में लीन होने से उपाधि रहित शुद्ध ब्रह्म हों गया हों तो भी प्रानापाना वायु द्वारा खींचा जाता है । जागृत अवस्था में फिर प्रबुद्ध हुये की वृत्ति से विषय में जीव भाव को प्राप्त किया जाता है





अष्टांग योग (What is Ashtanga Yoga) –
हमारे ऋषि मुनियों ने योग के द्वारा शरीर मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के साधन बताएँ हैं, जिसे अष्टांग योग कहते हैं, ये इस प्रकार हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रात्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि !

अष्टांग योग का उद्देश्य होता है शरीर के अंदर स्थित सात अदृश्य चक्रों का जागरण करना !

सात चक्र होतें हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। पहला चक्र है मूलाधार, जो गुदा और जननेंद्रिय के बीच होता है, स्वाधिष्ठान चक्र जननेंद्रिय के ठीक ऊपर होता है। मणिपूरक चक्र नाभि के नीचे होता है। अनाहत चक्र हृदय के स्थन में पसलियों के मिलने वाली जगह के ठीक नीचे होता है। विशुद्धि चक्र कंठ के गड्ढे में होता है। आज्ञा चक्र दोनों भवों के बीच होता है। जबकि सहस्रार चक्र, जिसे ब्रह्मरंध भी कहते हैं, सिर के सबसे ऊपरी जगह पर होता है, जहां पंडित जी लोग चोटी (चुंडी) रखते हैं।
इन्ही चक्रों के जागृत होने से समस्त शारीरिक और अध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त होती हैं और जब इन चक्रों से होते हुए कुंडलिनी महा शक्ति गुजरती है तब सब कुछ प्राप्त हो जाता है ! योग व प्राणायाम दोनों माध्यमों से चक्रों व कुण्डलिनी शक्ति का जागरण संभव होता है इसलिए हर व्यक्ति को अपने जीवन में थोड़ा समय निकालकर प्रतिदिन योग प्राणायाम जरूर करना चाहिए !











कई तरह से होते हैं प्राणायाम के लाभ (Pranayama benefits or advantages)-
– योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञानता का नाश होता है।
– प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और सुपात्र हो जाता है।
– प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
– प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
– प्राणायाम से हमारा जबरदस्त मानसिक विकास होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है।
– प्राणायाम से शरीर की सभी बीमारियों में 9 महीने में निश्चित आराम मिलने लगता हैं।
– सुबह-सुबह थोड़ा सा व्यायाम या योगासन करने से हमारा पूरा दिन स्फूर्ति और ताजगीभरा बना रहता है। यदि आपको दिनभर अत्यधिक मानसिक तनाव झेलना पड़ता है तो यह क्रिया करें, दिनभर चुस्त रहेंगे। इस क्रिया को करने वाले व्यक्ति से फेफड़े और सांस से संबंधित बीमारियां सदैव दूर रहेंगी।
– हर समय अपने अंदर सुखद पाजीटिव एनर्जी (positive energy) महसूस होने लगती है।


सावधानियाँ (Precautions and prohibitions in Pranayama and Yoga) –
अगर आप कोई प्राणायाम या एक्सरसाइज करते है तो नीचे लिखे कुछ बातो पर जरूर ध्यान दे, नहीं तो फायदे की बजाय नुकसान हो सकता है-
– अगर आपने कोई लिक्विड पिया है चाहे वह एक कप चाय ही क्यों ना हो तो कम से कम 1 से डेढ़ घंटे बाद प्राणायाम करे और अगर आपने कोई सॉलिड (ठोस) सामान खाया हो तो कम से कम 3 से 4 घंटे बाद प्राणायाम करे।
– अगर पेट में बहुत गैस हो या हर्निया या अपेण्डिस्क का दर्द हो या आपने 6 महीने के अंदर पेट या हार्ट का ऑपरेशन करवाया हो तो प्राणायाम न करे।
– प्राणायाम व योग को करने के कम से कम 7 मिनट बाद ही कोई हार्ड एक्सरसाइज (जैसे दौड़ना, जिम की कसरतें आदि) करनी चाहिए !
– प्राणायाम करते समय रीढ़ की हड्डी एकदम सीधी रखे और चेहरे को ठीक सामने रखे (कुछ लोग चेहरे को सामने करने के चक्कर में या तो चेहरे को ऊपर उठा देते है या जमींन की तरफ झुका देते है जो की गलत है )
– कोई ऊनी कम्बल या सूती चादर बिछाकर ही प्राणायाम करे (नंगी जमींन पर बैठ कर प्राणायाम ना करे। और प्राणायाम के 5 मिनट बाद ही जमींन पर पैर रखे। ये बार – बार देखा गया है कि हजारो लोग ऊपर दी गयी मामूली सावधानियों का पालन नहीं करते और प्राणायाम से उनको फायदे के जगह नुकसान पहुचता है और अंत में वे प्राणायाम को कोसते फिरते है कि उनको प्राणायाम से फायदा नहीं बल्कि नुकसान हुआ। जबकि प्राणायाम एक बहुत दिव्य क्रिया है और हठ योग के अनुसार प्राणायाम करने से भी पाप जलते है जैसे की भगवान का नाम जपने से इसलिए अगर आप बहुत कमजोर नहीं है तो आप प्रतिदिन कम से कम 15 मिनट कपाल भाति और 10 मिनट अनुलोम विलोम प्राणायाम जरूर करे। प्राणायाम का समय धीरे – धीरे बढ़ाना चाहिए ना कि पहले ही दिन से 15 मिनट प्राणायाम शुरू कर देना चाहिए अन्यथा गर्दन की नली में खिचाव या कोई अन्य समस्या पैदा होने का डर रहता है।
– सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन किसी भी आसन में बैठें, मगर जिसमें आप अधिक देर बैठ सकते हैं, उसी आसन में बैठें।
– प्राणायाम करते समय हमारे शरीर में कहीं भी किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए, यदि तनाव में प्राणायाम करेंगे तो उसका लाभ नहीं मिलेगा।
– प्राणायाम करते समय अपनी शक्ति का अतिक्रमण ना करें।
– ह्‍र साँस का आना जाना बिलकुल आराम से होना चाहिए।
– जिन लोगो को उच्च रक्त-चाप की शिकायत है, उन्हें अपना रक्त-चाप साधारण होने के बाद धीमी गति से प्राणायाम करना चाहिये।
– हर साँस के आने जाने के साथ मन ही मन में ओम् का जाप करने से आपको आध्यात्मिक एवं शारीरिक लाभ मिलेगा और प्राणायाम का लाभ दुगुना होगा।
– साँसे लेते समय मन ही मन भगवान से प्रार्थना करनी है कि “हमारे शरीर के सारे रोग शरीर से बाहर निकाल दें और ब्रह्मांड की सारी ऊर्जा, ओज, तेजस्विता हमारे शरीर में डाल दें” !
– ऐसा नहीं है कि केवल बीमार लोगों को ही प्राणायाम करना चाहिए, यदि बीमार नहीं भी हैं तो सदा निरोगी रहने की प्रार्थना के साथ प्राणायाम करें।

प्राणायाम के कई प्रकार और उनकी विधिया (Pranayama steps)-
 





कपालभाति प्राणायाम करने की विधि (Procedure of Kapalbhati pranayam)-

– समतल स्थान कपड़ा बिछाकर रीढ़ की हडडी सीधी करके आराम से बैठ जाएं। बैठने के बाद पेट को ढीला छोड़ दें। अब तेजी से बार – बार नाक से सांस बाहर निकालें, पर पेट को भीतर की ओर खीचने पर ध्यान ना दे क्योकि पेट अपने आप अंदर पिचकेगा। आप पूरा ध्यान केवल सांस को बार – बार बाहर निकालने पर दे। जो लोग नेत्र रोग से पीडि़त हैं, कान से पीप आता हो, ब्लड प्रेशर की समस्या हो, तो वे इस प्राणायाम को किसी योग प्रशिक्षक (Yoga Training) से सलाह लेकर ही करें |

कपालभांति के लाभ (Benefits of Kapalbhati Pranayama in hindi)-
 
– इस प्राणायाम का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इससे नाभि स्थित परम शक्तिशाली मणिपूरक चक्र जागृत होने लगता है और हर मानव के मणिपूरक चक्र में ही अमृत का वास होता है इसलिए मणिपूरक चक्र जैसे जैसे प्रभावी होता जाएगा वैसे वैसे मानव चिर युवा की प्रक्रिया की और अग्रसर होता जाएगा !
– इस प्राणायाम से चेहरे पर हमेशा ताजगी, प्रसन्नता और शांति दिखाई देगी। कब्ज और डाइबिटिज की बीमारी से परेशान लोगों के लिए यह काफी फायदेमंद है। दिमाग से संबंधित रोगों में लाभदायक है।
– वजन को कंट्रोल करता है (Kapabhaiti Weight reduction), जो लोग ज्यादा वजन से परेशान है वे इस प्राणायाम से बहुत कम समय में ही फायदा प्राप्त कर सकते हैं। इससे वजन संतुलित रहता है। कैंसर एड्स जैसी बेहद घातक बीमारियों में भी इससे निश्चित लाभ प्रदान करता है।
– आधा घंटा सुबह शाम परहेज के साथ करने से शरीर की सभी बीमारियो का नाश करने की निश्चित क्षमता रखता है।
 



अनुलोम-विलोम (नाड़ी शोधन) प्राणायाम की विधि (Process of nadi shodhan / anulom vilom pranayam)-
– बहुत कम लोगों को पता है कि नाड़ी शोधन कोई प्राणायाम नहीं, बल्कि एक पूरी प्रक्रिया है जिसकी शुरुवात अनुलोम विलोम प्राणायाम से होती है ! नाड़ी शोधन प्रक्रिया में एक बहुत साइंटिफिक तरीके से यह भावना करनी होती है कि शरीर के अंदर प्रवेश करने वाली वायु शरीर की विभिन्न नाड़ियों का शोधन कर रही है, अतः यह प्रक्रिया बिना गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के संभव नहीं होती है !
इसलिए यहाँ हम सिर्फ अनुलोम विलोम प्राणायाम का ही वर्णन कर रहें हैं !
अनुलोम-विलोम करने के लिए पहले सुखासन या पद्मासन में बैठ जाएं और आंखें बंद कर लें।फिर अपना दाएं हाथ के अंगूठे से नाक के के दाएं छिद्र को बंद कर लें और बाएं छिद्र से भीतर की ओर सांस खीचें। अब बाएं छिद्र को अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों से बंद करें। दाएं छिद्र से अंगूठा हटा दें और सांस छोड़ें। अब इसी प्रक्रिया को बाएं छिद्र के साथ दोहराएं। यही क्रिया कम से कम 10 बार, उलट – पलट कर करें। इसे प्रतिदिन 7-10 मिनट तक करने की आदत डालें।


अनुलोम-विलोम प्राणायाम के लाभ (Benefits of anulom vilom pranayama)-
– मानव शरीर में स्थित 72 हज़ार नाड़ियों को हर तरीके से शुद्ध करने में बहुत अहम भूमिका निभाता है जिससे शरीर की असंख्य बीमारियों का नाश अपने आप धीरे धीरे होने लगता है।
– हृदय प्रदेश में ईश्वरीय प्रकाश (divine light or God light) का उदय करता है जिसे कुछ वर्ष बाद इसका अभ्यासी (yoga practitioner feel or observe) स्पष्ट महसूस करने लगता है !
 





सूर्यभेदी प्राणायम करने की विधि (How to do suryabhedi pranayama)-
 
– किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठ जाएं। बायीं नाक बंद करके दाई नाक से सास खींचे। जब सांस पूरी भर जाए, तब कुंभक करें। इस कुंभक को उतना ही देर तक करना चाहिए, जिससे किसी भी अंग पर दबाव न पड़े। फिर बायीं नाक से सांस धीरे धीरे निकाल दे।यही क्रिया कम से कम 10 बार करें।



सूर्यभेदन प्राणायम के लाभ (benefits of suryabhedana pranayama)-
– भगवान् भास्कर की रहस्यमय शक्तियों का शरीर पोषण पाता है जिससे शरीर का बहुत भला होता है !
– इस प्राणायाम से मस्तिष्क शुद्ध होता है। वातदोष का नाश होता है। साथ ही कृमि दोष नष्ट होते हैं। यह सूर्य भेदन कुंभक बार-बार करना चाहिए पर गर्मी में कम करना चाहिए । इससे सभी उदर-विकार दूर होते हैं और जठराग्नि बढ़ती है।
– त्वचा में चमक और कसावट पैदा होती है !
 




चंद्रभेदी प्राणायाम की विधि (Way of doing chandra bhedi pranayama)-
– किसी भी शांत एवं स्वच्छ वातावरण वाले स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। अब नाक के बाएं छिद्र से सांस अंदर खींचें। पूरक अथवा सांस धीरे-धीरे गहराई से लें। अब नाक के दोनों छिद्रों को बंद करें। अब सांस को रोक लें (कुंभक करें) फिर थोड़ी देर बाद नाक के दाएं छिद्र से सांस छोड़ दें। यही क्रिया कम से कम 10 बार करें।
(एक ही दिन में सूर्य भेदन प्राणायाम और चंद्र भेदन प्राणायाम न करें)


चंद्र भेदन प्राणायाम के लाभ (Advantages of chandra bhedana pranayam)-
– मन के स्वामी, भगवान् शिव के सिर पर विराजने वाले चन्द्र भगवान् की रहस्यमयी जीवनी शक्तियों का शरीर में संचार होता है !
– शरीर में शीतलता आती है और मन प्रसन्न रहता है। पित्त रोग में फायदा होता है। यह प्राणायाम मन को शांत करता है और क्रोध पर नियंत्रण लगाता है। अत्यधिक कार्य होने पर भी मानसिक तनाव महसूस नहीं होता। दिमाग तेजी से कार्य करने लगता है। हाई ब्लड प्रेशर वालों को इस प्राणायाम से विशेष लाभ प्राप्त होता है।
 


भस्त्रिका प्राणायाम की विधि (Way of doing bhastrika pranayama) –
समतल और हवादार स्थान पर किसी भी आसन जैसे पदमासन या सुखापन में बैठकर इस क्रिया को किया जाता है। दोनों हाथ को दोनों घुटनों पर रखें। अब नाक के दोनों छिद्र से तेजी से गहरी सांस लें। फिर सांस को बिना रोकें, बाहर तेजी से छोड़ दें।
इस तरह कई बार तेज गति से सांस लें और फिर उसी तेज गति से सांस छोड़ते हुए इस क्रिया को करें। इस क्रिया में पहले कम और बाद में धीरे-धीरे इसकी संख्या को बढ़ाएं (यदि किसी व्यक्ति को दमा या सांस संबंधी कोई बीमारी हो तो वह अपने डॉक्टर से परामर्श कर ही इस क्रिया को करें)


भस्त्रिका प्राणायाम के लाभ (Benefits of bhastrika pranayam)-
– कुण्डलिनी महा शक्ति के जागरण में इस शक्ति का बहुत महत्वपूर्ण रोल होता है !
– यह पूरी शरीर की बहुत अच्छी कसरत करवा देता है !
– इस क्रिया के अभ्यास से फेफड़े में स्वच्छ वायु भरने से फेफड़े स्वस्थ्य और रोग दूर होते हैं। यह आमाशय तथा पाचक अंग को स्वस्थ्य रखता है। इससे पाचन शक्ति और वायु में वृद्धि होती है तथा शरीर में शक्ति और स्फूर्ति आती है। इस क्रिया से सांस संबंधी कई बीमारियां दूर ही रहती हैं।
-कुण्डलिनी जागरण (Kundalini Jagaran, yog, dhyan, meditation and energy) में तीन ग्रंथियों का भेदन होना अत्यंत आवश्यक है। यह तीन ग्रंथियां है ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि। इनके बिना कुण्डलिनी जागृत नहीं हो सकती। इन्हें जागृत करने के लिए भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास नियमित रूप से करना होता है। इससे पित्त-कफ की बीमारियों में लाभ होता है।
– यह सर्व रोग नाश की क्षमता रखता है !



 




केवल कुंभक प्राणायाम करने की विधि (Procedure of Kewal Kumbhak Pranayama) –
– इसको करने के लिए आप पद्मासन अवस्था में बैठ जायें ! आपका सिर, आपकी कमर व आपकी गर्दन सीधी होनी चाहिए !
अब आप अपनी नाक के दोनों छिद्रों से सांस को अंदर लें (इसे पूरक कहते हैं) ! अब आप अपनी नाक के दोनों छिद्रों बंद करके अपनी सांस को अंदर रोकें रहें (इसे अभ्यंतर कुंभक कहा जाता है) इसके बाद आप अपनी नाक के दोनों छिद्रों को छोड़ दे और सांस को धीर धीरे छोड़ें (इसे रेचक कहा जाता है) !
जब तक सांस शरीर के अंदर रहे तब तक ईश्वर के अपने मनपसन्द रूप का ध्यान करें !

केवल कुंभक प्राणायाम के लाभ (Benefits of Kewal Kumbhak Pranayama)–
 
– इस प्राणायाम को सर्वश्रेष्ठ प्राणायाम माना जाता है ! इस प्राणायाम को कुछ योगाचार्य प्लाविनी प्राणायाम भी कहते है ! जब तक योगी कुम्भक की अवस्था में रहता है तब तक उस पर कोई भी बीमारी, मृत्यु आदि असर नहीं कर सकते !
– इस प्राणायाम को करने से अध्यात्मिक उन्नति बहुत तेज होती है ! व्यक्ति को चमत्कारी सिद्धियाँ मिलती हैं ! शरीर के सभी रोगों का नाश होता है !
इस प्राणायाम करने वाले को धीरे धीरे अपने कुम्भक का समय बढ़ाते रहना चाहिए क्योंकि कुम्भक के समय एक क्षण के लिए भी किया गया ईश्वर का ध्यान करोड़ गुना फल देने वाला होता है





 

सीत्कारी (शीतकारी) प्राणायाम करने की विधि (Procedure of Sitkari pranayama or Shitkari, Sheetkari) –
– बहुत कम लोगों को मालूम है कि सीत्कारी प्राणायाम और शीतली प्राणायाम दोनों की क्रिया विधि एक जैसी है बस दोनों में अंतर यह होता है कि सीत्कारी प्राणायाम में सांस को मुड़ी हुई जीभ से अंदर खीचने के बाद तुरंत नाक से बाहर निकाल देते हैं जबकि शीतली प्राणायाम में सांस को मुड़ी हुई जीभ से अंदर खीचने के बाद कुम्भक (अर्थात सांस को यथा संभव अंदर रोके भी रहता है) करता है फिर नाक से रेचक करके सांस को बाहर निकाल देता है !
सीत्कारी प्राणायाम के फायदे (Benefits of Sitkari pranayam)–
इसके लम्बे अभ्यास से भूख प्यास पर विजय प्राप्त होती है ! शरीर चमकदार और चिर युवा रहता है ! पेट की गर्मी और जलन शांत होती है । शरीर पर स्थित झुर्रियां, फोड़ा, फुन्सिया, मुहांसे आदि का नाश होता है ! डायबिटीज जैसे जिद्दी रोगों में भी बहुत फायदेमंद है !


 


शीतली प्राणायाम करने की विधि (Procedure of sheetali pranayama) –
– बहुत कम लोगों को मालूम है कि सीत्कारी प्राणायाम और शीतली प्राणायाम दोनों की क्रिया विधि एक जैसी है बस दोनों में अंतर यह होता है कि सीत्कारी प्राणायाम में सांस को मुड़ी हुई जीभ से अंदर खीचने के बाद तुरंत नाक से बाहर निकाल देते हैं जबकि शीतली प्राणायाम में सांस को मुड़ी हुई जीभ से अंदर खीचने के बाद कुम्भक (अर्थात सांस को यथा संभव अंदर रोके भी रहता है) करता है फिर नाक से रेचक करके सांस को बाहर निकाल देता है !
शीतली प्राणायाम के गुण (Benefits of Sheetali pranayama)–
– इस प्राणायाम के अभ्यास से बल एवं सौन्दर्य बढ़ता है। रक्त शुद्ध होता है। भूख, प्यास, ज्वर (बुखार) और तपेदिक पर विजय प्राप्त होती है। शीतली प्राणायाम ज़हर के विनाश को दूर करता है। अभ्यासी में अपनी त्वचा को बदलने की सामर्थ्य होती है।
– अन्न, जल के बिना रहने की क्षमता बढ़ जाती है। यह प्राणायाम अनिद्रा, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और अल्सर में रामबाण का काम करता है। चिड़-चिड़ापन, बात-बात में क्रोध आना, तनाव तथा गर्म स्वभाव के व्यक्तियों के लिए विशेष लाभप्रद है।
– ज्यादा पसीना आने की शिकायत से आराम मिलता है। पेट की गर्मी और जलन को कम करने के लिये। शरीर की अतिरिक्त गरमी को कम करने के लिये व शरीर पर कहीं भी हुए घाव को मिटाने की लिये बहुत उपयोगी है !






 

उज्जायी प्राणायाम करने की विधि (Procedure of Ujjayi Pranayama) –
– सुखासन या पद्मासन में बैठकर सिकुड़े हुये गले से आवाज करते हुए सांस को अन्दर खीचना होता है।
उज्जायी प्राणायाम के लाभ (Advantages of Ujjayi Pranayama)–
– थायराँइड की शिकायत से आराम मिलता है। तुतलाना, हकलाना, ये शिकायत भी दूर होती है। अनिद्रा, मानसिक तनाव भी कम करता है। टी•बी•(क्षय) को मिटाने मे मदद होती है। गूंगे लोगों के लिए बहुत फायदेमंद है क्योंकि इसके लम्बे अभ्यास से आवाज वापस आने की संभावना रहती है ! गले में स्थित रहस्यमय विशुद्ध चक्र का जागरण होता है !







भ्रामरी प्राणायाम की विधि (Procedure of Bhramri Panayam) –
– सुखासन या पद्मासन में बैठें। दोनो अंगूठों से कान पूरी तरह बन्द करके, दो उंगलिओं को माथे पर रख कर, छः उंगलियों को दोनो आँखो पर रख दे। लंबी साँस भरने के बाद, सांस को धीरे धीरे कण्ठ से भवरें जैसा (हम्म्म्म) की आवाज करते हुए निकालना है।
भ्रामरी प्राणायाम के लाभ (Advantages of Bhramri Pranayama)–
– सायकीक पेंशेट्स को फायदा मिलता है। वाणी तथा स्वर में मधुरता आती है। ह्रदय रोग के लिए काफी फायदेमंद है। मन की चंचलता दूर होती है एवं मन एकाग्र होता है।
– पेट के विकारों का शमन करती है। उच्च रक्त चाप पर नियंत्रण करता है। थायराइड की समस्या दूर करता है ! कंठ स्थित विशुद्ध चक्र का जागरण होता है ! ब्रम्हानंद की प्राप्ति होती है । मन और मस्तिषक की एकाग्रता बढती है।
– भ्रामरी प्राणायाम करने से साइनस(Sinus) के रोगी को मदद मिलती है। इस प्राणायाम के अभ्यास से मन शांत होता है। और मानसिक तनाव (stress/depression) दूर हो जाता है। भ्रामरी प्राणायाम उच्च रक्तचाप (High Blood Pressure) की बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को भी लाभदायी होता है। भ्रामरी प्राणायाम की सहायता से कुंडलिनी शक्ति(Kundalini Power) जागृत करने में मदद मिलती है। इस प्राणायाम को करने से माइग्रेन/अर्धशीशी (Migraine) के रोगी को भी लाभ होता है।
– भ्रामरी प्राणायाम के नित्य अभ्यास से सोच सकारात्मक बनती है और व्यक्ति की स्मरण शक्ति का विकास होता है। इस प्राणायाम से बुद्धि का भी विकास होता है। भय, अनिंद्रा, चिंता, गुस्सा, और दूसरे अभी प्रकार के मानसिक विकारों को दूर करने के लिए भ्रामरी प्राणायाम अति लाभकारक होता है।
– भ्रामरी प्राणायाम से मस्तिस्क की नसों को आराम मिलता है। और हर प्रकार के रक्त दोष मिटते हैं। भ्रामरी प्राणायाम लंबे समय तक अभ्यास करते रहने से व्यक्ति की आवाज़ मधुर हो जाती है। इसलिए गायन क्षेत्र के लोगों के लिए यह एक उत्तम प्राणायाम अभ्यास है।







 

ओंकार (उद्गीथ) प्राणायाम की विधि (Procedure of omkar / udgeeth pranayama)-
– शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर किसी भी आसन में बैठ जाएं। अब अपनी आंखों को बंद करें। गहरी सांस भरकर ओम शब्द का आवाज के साथ उच्चारण करें। इस क्रिया को कम से कम 11 बार करें।
ओंकार (उद्गीथ) प्राणायाम के लाभ (Benefits of omkar/ udgeeth pranayama)-
– ॐ शब्द ब्रह्म (अर्थात ईश्वर) है इसलिए इस प्राणायाम करने वाले के सभी चक्रों में जागरण का स्पंदन शुरू हो जाता है जिससे सर्व रोग नाश होता है और कई अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी विकसित होती हैं !
– इस प्राणायाम के निरंतर अभ्यास से मन अति शांत और अति शुद्ध होता है। मानसिक विकार यानि बुरे विचार दूर भागते हैं। मन स्थिर रहता है। पूरे दिन कार्य में मन लगता है। आवाज का आकर्षण बढ़ता है और आनंद की अनुभूति होती है। अनिद्रा की बीमारी दूर होती और नींद अच्छे से आती है। साथ ही जिन लोगों को बुरे सपने परेशान करते हैं उन्हें भी प्राणायाम से लाभ प्राप्त होता है।






 

शांभवी मुद्रा की विधि (How to do shambhavi mudra)-
– शांत एवं शुद्ध हवा वाले स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। मेरुदण्ड(रीढ़ की हड्डी), गर्दन एवं सिर एक सीध में रखें। हाथों को एक दूसरे के ऊपर रख लें या घुटनों पर रखे। अब पूर्ण एकाग्रचित होकर दोनों आखे बंद करके भौंहों के बीच में ध्यान लगाएं।
शांभवी मुद्रा के लाभ (Benefits shambhavi yog)-
– इस मुद्रा से आज्ञा चक्र जो कि दोनों भौंहों के मध्य स्थित है, विकसित होने लगता है जिससे सूक्ष्म संसार के दिव्य दर्शन होतें हैं ! भविष्य का पूर्वानुमान भी होने लगता है ! दृष्टि दिव्य होने लगती है ! तृतीय नेत्र (third eye) जागृत होने लगता है।
– दिमाग तेजी से कार्य करना शुरू कर देता है। आंखों की चमक बढ़ती है, आत्मविश्वास की झलक दिखाई देती है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से मन शांत होता है और एकाग्रता बढ़ती है। याददाश्त में गजब की बढ़ोतरी होती है।






 

अग्निसार क्रिया की विधि (Procedure of Agnisar kriya pranayama Yoga)-
– साँस पूरी तरह से बाहर छोडकर, ठुडी को गले से लगा दे, पेट को अंदर चिपकाकर, बार बार एक लहर की तरह रीढ की हड्डी के पास तक ले ज़ाये।
इसे सुविधानुसार करे। (जिन्हे कोई गंभीर समस्या हो वो परामर्श लेकर करे)
अग्निसार क्रिया के लाभ (Benefits of Agnisar kriya)-
– यह प्राणायाम सबसे तेज नाभि स्थित रहस्यमय मणिपूरक चक्र को जागृत करता है जिससे शरीर के सभी रोगों का नाश होता है और शरीर पर एक दिव्य आभा व तेज चमकने लगता है !







 

उड्डीयन बंध की विधि (Process of uddiyana bandha)-
– सबसे पहले कंबल या दरी बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं। पेट के अंदर की सारी वायु बाहर निकाल दें और पेट को अंदर की ओर पिचकाएँ । दोनों हाथ घुटनों पर रखें। जब तक सांस सरलता से बाहर रोक सके, उतनी ही देर रोके । जब यह महसूस होने लगे की अब सांस नहीं रुकेगी तो धीरे-धीरे अंदर की ओर सांस भरना शुरू करें।
उड्डीयन बंध के फायदे (Benefits of uddiyana kriya)-
– इस बंध से पेट के सभी तंत्रों की मालिश हो जाती है। पाचन शक्ति बढ़ती है। डायबिटिज के मरीजों के लिए यह बंध रामबाण है इसलिए उन्हें इसे रोज लगाना चाहिए !
– कुण्डलिनी जागरण में यह बंध अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
– यदि किसी व्यक्ति को कब्ज की समस्या है तो उसे यह बंध नियमित करना चाहिए। साथ ही इस बंध से भूख बढ़ती है एवं पेट संबंधी कई रोग दूर होते हैं।







जालंधर बंध करने की विधि (How to do jalandhara bandha)-
  1. जालन्धर बंध को करने के लिए सबसे पहले किसी समतल जमीन पर कंबल या दरी बिछा लें फिर पद्मासन की स्थिति में बैठ जाएं।
  2. अपने शरीर को एकदम से सीधा रखें ।
  3. अपनी गर्दन के भाग को इस तरह से झुकाएं जिससे आपका गला और ठोड़ी आपस में स्पर्श हो जाए।
  4. सिर और गर्दन को इतना झुकाएं कि ठोड़ी की हड्डी के नीचे छाती के भाग को स्पर्श करे और ठोड़ी में चार पांच अंगुल का अंतर रह जाए।
  5. इस क्रिया में अपनी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊपर उठाकर सीधा करने का क्रम चलाना चाहिए।
  6. अपनी सांस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिए।
जालंधर बंध के लाभ (Benefits of jalandhara kriya)-
– यह बंध सीधे कंठ स्थित विशुद्ध चक्र को जागृत करता है इसलिए बेहद महत्व पूर्ण है !
– इस क्रिया से हमारे सिर, मस्तिष्क, आंख, नाक, कान, गले की नाड़ियों का संचालन नियंत्रित रहता है। जालंधर बंध इन सभी अंगों के नाड़ी जाल और धमनियों आदि को स्वस्थ रखता है।



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बाह्य प्राणायाम (महाबंध या त्रिबंध) की विधि (Procedure of Bahya Pranayama or Mahabandha or Tri bandha)–
– सुखासन या पद्मासन में बैठें। साँस को पूरी तरह बाहर निकालने के बाद साँस बाहर ही रोककर रखने के बाद तीन बन्ध एक साथ लगाने पड़ते है ! ये तीनो बंध हैं – जालंधर बन्ध (गले को पूरा सिकोड कर ठोडी को छाती से सटा कर रखना है), उड़ड्यान बन्ध (पेट को पूरी तरह अन्दर पीठ की तरफ खीचना है), मूल बन्ध (मल विसर्जन करने की जगह को पूरी तरह ऊपर की तरफ खींचना है) !

बाह्य प्राणायाम (महा बंध या त्रिबंध) के लाभ (Advantages of Bahya Pranayama or Mahabandha or Tri bandha)–
–  इससे एक साथ मूलाधार चक्र, नाभि स्थित मणिपूरक चक्र व कंठ स्थित विशुद्ध चक्र जागृत होता है जिससे कई रहस्यमय सिद्धियाँ मिलती हैं और साथ ही शरीर के सभी रोगों का नाश होता है !
– तात्कालिक रूप से कब्ज, ऐसिडिटी, गैस आदि जैसी पेट की सभी समस्याओं से आराम मिलता है। हर्निया ठीक होता है। धातु, पेशाब से संबंधित सभी समस्याएँ मिटती हैं। मन की एकाग्रता बढ़ती है। संतान हीनता से छुटकारा मिलने में भी सहायक है।





मूलबंध करने की विधि (Procedure of Moolbandh) –
इसकी क्रिया को ध्यान पूर्वक समझने का प्रयास किया जाये तो वह सहज ही समझ में भी आ जाती है और अभ्यास में भी। मूलबंध के दो आधार हैं। एक मल मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एड़ी का हलका दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेंद्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।
इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।
दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाये और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी एड़ी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाये। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हलका हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है।
संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाये और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाये। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियां भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही सांस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में 10 बार करनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए 25 तक पहुँचाया जा सकता है। यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या वज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिए कि कामोत्तेजना का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसककर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुंच रहा है।
मूलबंध के लाभ (Benefits of Moolbandha)-
– मूलबंध सीधे मूलाधार चक्र को जागृत करता है जिसमे कुण्डलिनी शक्ति सोयी रहती है !
– मूलाधार चक्र जागृत होने पर बहुत सी दिव्य शक्तियां मिलती है और रोगों का भी नाश होता है !
-यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है।








 नौली क्रिया करने की विधि (How to do Nauli Kriya) –

नौलि योग की एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्रिया है जिससे नाभि स्थित मणिपूरक चक्र को जागृत करने में बहुत सहायता मिलती है तथा पेट के सभी रोगों का नाश भी होता है क्योंकि इससे पेट के अंदरूनी सारे अंगों की बहुत बढियां मालिश हो जाती है !
इसे करने के लिए सर्व प्रथम सीधे खड़े हों तथा पैरों के बीच लगभग डेढ़ फुट की दूरी रखें !
फिर गहरी सांस लेंकर आगे झुकें और हाथों को घुटनों के ऊपर रखें !
अब सांस पूरी तरह शरीर से बाहर निकालकर उड्डीयान बंध की तरह पेट को कमर की ओर खींचें !
अब बारी बारी दोनों घुटनों पर हल्का दबाव देकर आप अपने पेट को clockwise एवं anti -clockwise घुमाएं !
जब तक सांस रोके रह सकें तब तक इसे करते रहें फिर वापस सीधे खड़े हो जाएँ !
वापस पुनः यह क्रिया दोहराएं !
रोज कम से कम 4 -5 बार करें इसे !
नौली योग क्रिया के तीन प्रकार होते हैं – मध्यनौली, दक्षिणनौली, वामनौली ! अलग अलग हाथों पर बारी बारी जोर देने से दक्षिणनौली, वामनौली बनती है और दोनों हाथ के द्वारा एकसाथ जोर देने पर मध्य नौलि बनती है !

नौलि क्रिया के लाभ (Benefits of Nauli kriya)-
यह एक अति उत्तम योग शोधन विधि है ! यह पाचन को ठीक करने के लिए रामबाण है ! पेट के जूस के स्राव में मदद करता है, अपच, देर से पाचन आदि दोषों से संबंधित सभी विकारों को दूर करती है तथा प्रसन्नता प्रदान करती है !
नौली के दौरान पूरे पेट को घुमाने, नचाने और सिकोड़ने से पेट के सभी पेशियों एवं अंगों की मालिश होती है तथा वे सुदृढ़ होते हैं!
– यह शरीर में गर्मी उत्पन्न करती है तथा पाचन अग्नि को सक्रिय करती है !
– यह अंतःस्रावी क्रियाओं को संतुलित करती है, हॉर्मोन को नियमित करती है !
– मधुमेह वाले रोगियों के लिए बहुत अच्छी क्रिया है और शुगर को कम करने में बड़ी भूमिका निभाता है !
– यौन एवं मूत्र विकार कम करने में लाभकारी है !
– यह आंतों के विभिन्न अंगों की गतिशीलता बढ़ाती है तथा तंत्रिका तंत्र एवं उनके बारीक केंद्रों की सक्रियता में मदद करती है !
– आंतों से विभिन्न पदार्थों को बाहर करने जैसे मल, मूत्र एवं प्रजनन-मूत्र स्रावों को बाहर करने की गति पर अधिक नियंत्रण प्रदान करती है।
(नौली क्रिया में सावधानियां – हर्निया, उच्च रक्तचाप, आमाशय अथवा छोटी आंत के अल्सर से पीड़ित व्यक्तियों को यह नहीं करनी चाहिए, गर्भावस्था के दौरान इसको करना सख्ती से मनाई है, पेट के आपरेशन के बाद या पेट में कोई चोट लगी हो तो इसे न करें, यदि इस क्रिया के दौरान पेट में दर्द का अनुभव होता है तो इसे तुरंत रोक दिया जाना चाहिए) |
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